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ग्रामीण मुस्लिम समाज की कहानियाँ -----अनवर सुहैल

आम  नागरिकों के  मन  में भारतीय मुस्लिम समाज के बारे में कई अजीबोगरीब धारणाएं और भ्रांतियां व्याप्त  हैं.
प्रेमचंद की कहानी 'ईदगाह' के दादी और  हामिद हों या  'पञ्च-परमेश्वर' के अलगू चौधरी और जुम्मन शेख, ऐसे कितने कम मुस्लिम पात्र हैं जिनसे बहुसंख्यक  समाज के छात्र या बच्चे  रूबरू हो  पाते  हैं. इतना कम जानते हैं लोग मुसलमानों के बारे में कि अंजाने में सौजन्यतावश ईद-बकरीद की तरह मुहर्रम की भी मुबारकबाद दे डालते हैं. स्कूली-कक्षाओं  में भी इन  मुस्लिम छात्रों का  कितना कम प्रतिशत होता है. जैसे-जैसे कक्षा बढती है मुस्लिम छात्रों  की  संख्या  घटती  जाती  है. उच्च शिक्षा  में तो  उँगलियों में गिने जा सकते  हैं  मुस्लिम छात्र. हाँ, समाज  में कसाई, दरजी, टायर पंक्चर वाले, ऑटो मेकेनिक, नाई जैसे कामों को करने  वाले  मुस्लिम  पात्रों  से बहुसंख्यक  समाज  मिलता-जुलता है. या फिर जरायम-पेशा कामों  में  लिप्त  होने  के कारण  पुलिस  रिकार्ड  में ये  मुस्लिम  पात्र  मिलते  हैं. इधर विगत कई सालों  से  आतंकवादी या दहशतगर्द  के रूप में भी  मुस्लिम लोग  चर्चा  में  आते  हैं. वर्ना  इनके बारे में  कोई  बात  भी  नहीं  करता.
एक  धारणा  ये  भी  बहुसंख्यकों  के मन  में पुख्ता  है कि  ये  तमाम  मुस्लिम  एक  हैं  और  कांग्रेस के वोट  बैंक  हैं. इस  वोट  बैंक में डाका  डाला  लालू  ने, मुलायम  ने और  बहनजी  ने. ये भी  एक गलत  धारणा  है  कि  जामा मस्जिद के शाही  इमाम को अब  भी अपना धरम-गुरु मानते हैं और हर चुनाव  से पूर्व  शाही इमाम  एक  फतवा ज़ारी  करते हैं जिसे  सारे मुसलमान मानते  हैं.
मीडिया, साहित्य, सिनेमा जैसे जनसुलभ-लोकप्रिय  माध्यम के रहते हुए भी मुसलमान समाज एक एलियन के रूप में ही लोगों के मन-मस्तिष्क में स्थापित है. देश की अधिकांश जनता अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में भी इन मुसलमान नागरिकों से परिचित हो नहीं पाती है. इसके बरअक्स ये  भी कहा जा सकता  है कि भारतीय मुस्लिम समाज  खुद को कुछ  इस  तरह एक ऐसे  खोल  में  ढंके  हुए है कि इस  खोल  से  वो  बाहर निकलता नहीं और किसी  दूजे  को  इस  खोल में  प्रवेश की  गरज  नहीं . बेशक  ये  गरज की ही बात  है. किसी  को गरज  नहीं  कि  इस  बंद  से समाज  के  बारे  में  जाने. वैसे  भी  बहुसंख्यक  समाज स्वयंमेव  इतने खांचे  में  विभाजित  है  कि उसकी  जातियां-उपजातियां एक-दूजे  को  ताउम्र  नहीं  जान  पाती हैं तो फिर  मुस्लिम समाज के  बारे  में  तरह-तरह  की  भ्रांतियां  फैलना  लाजिम  है. ये मुसलमानन  बेशक आतंकवादी या देशद्रोही नहीं हैं जो कि देश के गाँव-खेड़े में जीविकोपार्जन करते हैं और दो-जून की किचकिच के बाद फुर्सत के क्षणों में अपने ईष्ट की अराधना करते हैं. इनमें अरब के मुसलमानों की तरह की कट्टर एकेश्वरवादी सोच या दुर्राग्रह  का नितांत अभाव दीखता है. ये नमाज़ और पूजा में सिर्फ पद्धति का भेद जानते हैं. अपने बुजुर्गों, संतों, पीरों-औलियाओं की मजारों पर जाकर ऐसी हाजिरी देते हैं जैसे कि कोई गैर-मुस्लिम हों...जबकि कट्टर सोच के मुसलमान इस तरह कब्र की पूजा या अराधना को हराम कहते हैं. इनमें शिया भी हैं. सुन्नी मुसलमान भी यदि दाढ़ी-टोपी की कवायद करें तो इनमें और अन्य शहरियों में भेद मुश्किल है. बोलचाल, रहन-सहन भी एक जैसा है. गाँव का किसान किसी भी जात या धर्म का हो एक सा दिखलाई देता है. एक सी मुसीबतों का सामना करने को अभिशप्त होता है. लेकिन संख्या के इस खेल में कई ताकतें इन्हें अलगियाने के लिए कृत-संकल्पित रहती हैं और भेद-भाव के नित नए औजारों से सामाजिक एकरसता को छिन्न-भिन्न करती रहती हैं.
फिर भी देश में  बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके जीवनकाल में शायद ही कोई मुसलमान व्यक्ति उनके साथ लम्बे समय तक गुजर-बसर किया हो. इतिहास, धर्म और राजनीती के घालमेल में बहुसंख्यकों और मुस्लिमों के बीच खाई बढती जा रही है.
कोई युवक यदि दाढ़ी रखना चाह रहा हो तो उसके दोस्त झट से उसे मियाँ या तालिबानी या आतंकवादी कहने लगते हैं. दाढ़ी, टोपी और ढीला उठंगा पैजामा-कुरता एक ऐसी पोषक का पर्याय है.
 उनकी दृष्टि और सोच में ये जो देश के मुसलमान नागरिक हैं जो किसी बर्बर सभ्यता के पोषक होते हैं और जो किसी भी तरह से अन्य लोगों के बीच  हिलमिल नहीं सकते.
अलीगढ विश्विद्यालय के प्रोफ़ेसर मेराज अहमद के दो  कथा संग्रह 'दावत' और ' घर के घाट के'  मेरे समक्ष है और ये तमाम कहानियाँ मुझसे संवाद कर रही हैं. सभी कहानियों का केंद्र-बिंदु है ये है कि प्रगति और विकास के तमाम दावों के बावजूद मुस्लिम समाज की हैसियत कम से कमतर होती जा रही  है. एक जगह हाशिया होती है लेकिन उसके भी बाहर धकेल दी जा रही है इस  समाज की अस्मिता. मेराज अहमद बड़ी बारीकी से कहानी के परिवेश, पात्र और परिस्थितियों के ज़रिये इन सवालों को उठाते हैं. वे सवाल जिनके लिए बेशक स्वयं मुस्लिम समाज भी ज़िम्मेदार हैं और मुख्यधारा से खुद को काटे रखते हैं.

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