Skip to main content

संवेदनायें मील का पत्थर हैं

प्रत्यक्षा सिंहा

नासिरा शर्मा की ‘संगसार कहनी-संग्रह’, ईरान की पृष्ठभूमि में 1980 से 1992 के दरम्यान लिखी वो कहानियां हैं जिसके पात्रा और जिनकी स्थितियाँ किसी विदेशी ज़मीन के बावजूद हमारे ही इर्द- गिर्द से उपजी पनपी कहानियाँ लगती हैं। उनकी आकाँक्षायें, उनके सुख और उनके दुख -सब ऐसे हैं जो हमारे आसपास के देखे हुए महसूसे हुये हैं। इंसान की संवेदनाओं और इच्छाओं का ऐसा व्यापक फ़लक जो आसमान के फैलाव लिये होने के साथ ही फिर सिमटकर छाती के भारीपन और आँख के गर्म आंसू में सिमट जाये, ऐसी कहानियांँ है ‘‘संगसार’’ में।

ये कहानियाँ जगह, समय, धर्म के परे उन जज़्बातों की कहानियाँ हैं जो सदियों से आजतक विभिन्न रूपों और शक्लों में बार-बार दोहराई जा रही है। प्रेम की, बलिदान की, बुनियादी इंसानी ज़रूरतों की, छोटे-छोटे सहज भोले आकाँक्षाओं की, खुली हवा में फेफड़ा भर सांस लेने की नैसर्गिक चाहत की पिरोयी मालायें है। उन सभी एहसासों का दस्तावेज़ है जिनके अक्षर पढ़ मानव सभ्यता का विकास हुआ।

विदेशी सरोकारों वाली इन कहानियों के पीछे एक लेखक की तमाम वो संवेदनायें हैं जो देश काल के दायरे को तोड़ता हुआ उनको आमजन से जोड़ता है। किसी यात्रा संस्मरण की सीमा तोड़ती, इन कहानियों का स्वरूप दिल और दिमाग़ के उन तंतुआंे से एक तार कर देता है जो हरेक एहसास को वृहत मानव समाज से जोड़ता हुआ उसे इतना व्यापक बनाता है कि अंतः ये किसी देश, किसी काल, किसी स्थिति से बहुत ऊपर उठकर इंसानी आवेगों का ऐसा महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ बन जाती है जो ‘सच’ हैं किसी भी सभ्यता के लिए और इन्हीं वजहों से ये कहानियाँ होने के साथ-साथ एक व्यापक, वैश्विक स्तर की कहानियाँ बनते हुये बहुत ऊपर उठ जाती है ।

नासिरा जी ने पुस्तक के प्रारम्भ में ‘दो शब्द’ में कहा है, ‘कब्र में सोए उन कर्मठ, निष्ठावानों को जो आज भी दिलों के चिराग़ बन गरमी और रौशनी देते है।’

ये दो पंक्तियाँ बता देती हैं कि इन कहानियों का वास्तविक काल कौन-सा था। ये उन वक़्त की कहानियाँ है जब ईरान अपनी निष्ठा और बलिदान के चरम पर था। जब ऐसी स्थिति थी जिसमें लोग एक दूसरे को भय से, शक से, नफ़रत से देख रहे थे, चाहे इसकी वजह शाह हो, इस्लाम हो या साम्यवाद हो। ये उस समय की देन थी जब तानाशाही के विरोध में लोग उठ रहे थे जब ऐसे भी लोग थे जो तानाशाही बरक़रार रख उसमें अपना स्वार्थ तलाश रहे थे। ये ऐसे समय के तोड़-फोड़ वाली दुनिया, विध्वंस वाली दुनिया में कोमल राग तलाशने की जिजीविषा वाली कहानियाँ हैं, खूँख़ार समय में, टूटी इमारतों के अवशेेषों के किसी कोपल के सहसा उग आने का जीवन राग हैं।

कहानी ‘ख़लिश’ सोहराब की कहानी है जो हिन्दुस्तान जाना चाहता है आगे की पढ़ाई के लिये लेकिन साथियों के सोहबत में अपने भविष्य को अंधे कूँए में डाल आता है। बहाइयों के घर छापे में उसके साथी उनकी मजहबी किताबों को आग लगा देते हैं और सोहराब का दिल धुँआ- धुँआ हो जाता है। इसके साथ ही सोहराब के अब्बा उसकी पढ़ाई के पैसों का इंतज़ाम करने किसी बेेेसहारा बुढ़िया के मौत केे कारण बनते हैं और ये ग़लत काम उनको घुटन और उदासी में ठेल देता है। ‘ख़लिश’ के सोहराब और अब्बा हर उस जगह पाये जाते हैं जहाँ नेकनियति अब भी हज़ार दुश्वारियों के कायम है। यही आशा की किरण है।

इन कहानियों में कई ऐसी कहानियाँ हैं जो स्त्राी के बुनियादी अस्मिता की दास्तान हैं। इन भयानक उठापठक के समय में जो ख़ास संगदिली का सामना उनको करना पड़ता है उसका विस्तृत बयान है। स्त्रिायों की अधीनस्थ स्थिति वैसे ही उन्हंे दयनीय बनाती और बुरे कठिन वक़्तों में ये मार उन पर दोहरी पड़ती है। पर बावजूद कि इन कठिन हालातों का विस्तार से वर्णन है। एक बात जो हर कहानी में उभर कर आती है इन स्त्रिायों के अंदर, उनके बाहरी कोमल स्वरूप के भीतर एक ऐसा मज़बूत कोर है, जो उन्हंे हर तकलीफ़देह समय में अपना सर पानी के ऊपर उठाये रखने में कारगर साबित करता है। इन कहानियों की ‘आखि़री पहर’ की ज़ाहेदा हो या ‘संगसार’ की आसिया या ‘गूँगा आसमान’ की मेहरअंगीज़ या फिर ‘नमक का घर’ की शहरबानों, ये औरतें अपने वजूद की लड़ाइयाँ लड़ती हैं। शहरबानांे अपने खोये घर और गुमशुदा परिवार की त्रासदी झेलती औरत है जिसका तार अपने जड़ों से टूट गया है, इस खोये की तलाश में बेचैन परिन्दा है और इस मुग़ालते को जिलाये रखना उसकी ज़रूरत है, ‘‘ताकि मैं जीने के क़ाबिल अपने को बना सकूश्ं, वरना मुझे हर पल लगता है, मैं मर रही हूँ...’’

आसिया प्रेम की पवित्राता का सच्चा नमूना है। पति के साथ बेवफ़ाई के बावजूद उसके विवाहेतर प्रेम संबंध में बेपनाह जुदाई है, ऐसी सच्चाई है जो इस दोहरे मानदंड वाले पारंपरिक समाज में भी उसके मौत का फ़रमान जारी होने पर ये सच्चाई बयान करती है, ‘‘उस रात औरतों ने चूल्हे नहीं जलाये, मर्दांे ने खाना नहीं खाया, सब एक दूसरे से आँख चुराते है। यदि आसिया गुनाहगार थीं तो फिर उसके संगसार होने पर यह दर्द, यह कसक उनके दिलों को क्यों मथ रही थी।’’.............................................शेष भाग पढ़ने के लिए पत्रिका देखिए



















Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क