Skip to main content

विजय लक्ष्मी से एम. हनीफ मदार की बातचीत

विजय लक्ष्मी से एम. हनीफ मदार की बातचीत

पिछले एक दशक में आमतौर पर महिलाओं की स्थिति और खासतौर पर आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों की महिलाओं की स्थिति में तेजी से गिरावट आई है। क्या कारण मानती हैं आप?
मैं समझती हूँ कि जो जातिवादी संगठन बन रहे हैं और जातिवादी राजनीति बड़ी तेजी से उभरी है इसका बहुत बड़ा प्रभाव इन महिलाओं की स्थिति में पड़ा है। इसकी वजह है कि यदि एक समुदाय अपनी जाति विशेष को लेकर चलता है तो दूसरे समुदाय में खुद ही उसके प्रति एक प्रतिस्पर्धा-सी होनी शुरू हो जाती है। जबकि जैसा हम लोग चाहते हैं कि आमतौर पर राजनीति में या अन्य क्षेत्रों में महिलाऐं पूरे सामाजिक और खुद के विकास के लिए बिना किसी जातिवाद के काम करें मगर उसको ये जातीय राजनीति खत्म कर देती है और इधर महिलाओं का जो आन्दोलन उनकी प्रगति के लिए बढ़ा है उस पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए महिलाओं की स्थिति ज्यादा बेहतर नहीं हो पा रही है।
वैश्वीकरण व नव उदारवादी नीतियों के बाद महिला कामगारों के लिए रोजगार की क्या संभावनाऐं दिखती हैं?
हाँ, महिला कामगारों के लिए प्रत्यक्ष रूप से रोजगार की संभावनाऐं बढ़ी हैं। जैसे मीडिया में बहुत स्कोप हुआ है एवं अनेक उद्योग धंधे भी इस तरह के शुरू हुए हैं जिसमें महिलाएं घर से बाहर निकलकर काम कर रही हैं परन्तु यदि हम इसको गहराई से देखें तो वह अपने स्तर पर व अपने बलबूते पर वह काम खुद नहीं कर पा रही हैं। जैसे पहले उद्योग धंधे थे वह सूत या कपास काटती थी या ज्यादा मेहनत और योग्यता के साथ वह ज्यादा कमा लेती थी जैसे वह कढ़ाई या बुनाई कर रही है। इसमें उसका खुद का प्रतिनिधित्व था जो उसे आत्मनिर्भरता के साथ ही निजत्वता का भान भी कराता था। वहीं आज जो काम है वह हवा में है और उसका मुख्यतः जो फायदा मिल रहा है वह उन्हीं लोगों को जो धनाढ्य हैं वैश्विक हैं व्यवसायी हैं उन्हीं को मिल पा रहा है परन्तु महिलाओं का तो वहाँ भी शोषण हो रहा है जैसे उन्हें कार बेचनी है या सिगरेट बेचनी है वहाँ भी बिना कपड़ों में एक महिला ही खड़ी है।
इसमें आप किसे दोषी मानती हैं, बाजार को या महिला मानसिकता को।
बाजार को मानते हैं क्योंकि महिला, वह तो भूखी मर जाएगी अगर काम नहीं करेगी तो। उसे तो कहीं न कहीं काम तो करना ही है बल्कि वह समझौता कर रही है। यह एक किस्म से वैश्यावृत्ति का ही दूसरा रूप दिखता है जहाँ उसे बाजारू मानसिकता के साथ धकेला जा रहा है समाज में परोसा जा रहा है समाज की मानसिकता को बिगाड़ने के लिए तो मैं उनके लिए आज कोई ठोस काम नहीं देखती। परिवर्तन के लिए लगातार उन्हें संघर्ष में तो रहना चाहिए।
महिलाओं पर बढ़ते यौन हमलों, बाल यौन उत्पीड़न, यौन ब्लैक मैलिंग के बढ़ते मामलों में भूमण्डलीकरण द्वारा परोसी जा रही संस्कृतियों को आप कितना जिम्मेदार मानती हैं?
हाँ, मैं समझती हूँ भूमण्डलीकरण में व्यावसायिक प्रचार-प्रसार का सबसे बड़ा माध्यम टी.वी. है और टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए उस पर दिखाए जाने वाले अनेक इस प्रकार के प्रोग्राम भी शामिल रहते हैं जिनसे एक जो नवधनाढ्य वर्ग है उसमें एक भोगवादी मानसिकता पनपने लगी है और उसी के चलते जहाँ भी मौका मिलता है स्त्रियों पर बच्चियों के साथ वे इस तरह का जघन्य अपराध करने से नहीं चूकते।
शिक्षा क्षेत्र में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति क्या है?
शिक्षा क्षेत्र में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बहुत खराब है। हमने सर्वे किया था उसमें अन्य समुदायों की अपेक्षा मुस्लिम महिलाओं का प्रतिशत बहुत कम है।
इस कम प्रतिशत के क्या कारण मानती हैं आप?
सबसे पहला कारण तो उनकी गरीबी है, और दूसरे उनके बीच धर्म गुरुओं मसलन मुल्ला-मौलवियों द्वारा यह प्रचारित किया जाता रहता है कि आपको दीन की तालीम के अलावा दूसरी भाषा या चीजें नहीं पढ़नी हैं। इससे मुस्लिम महिलाओं का रुझान भी शिक्षा की तरफ कम रह जाता है। क्योंकि मैंने कई जगह देखा है कि उनके पास अवसर भी हैं। परन्तु उनके ऊपर हिदायतों का इतना असर रहता है कि अन्य सामाजिक शिक्षा के प्रति उनका रुझान नहीं बढ़ पाता।
मुस्लिम महिलाओं को अपने संवैधानिक अधिकार पाने के लिए किस दिशा में बढ़ना चाहिए?
उनके लिए असल में बहुत काम की आवश्यकता है जो शिक्षित महिलाएं हैं वे उनके बीच जाकर उनमें सबसे पहले शिक्षा के प्रति चेतना जागृत करें। क्योंकि आमतौर पर तो वे ये मानने को तैयार नहीं हैं कि उनका शोषण हो रहा है या कोई नुकसान है और इसीलिए उन्हें यह जानकारी भी नहीं है कि उनके विकास के कहीं आगे रास्ते भी हैं। जबकि वे भी वह सारे अधिकार व हक प्राप्त कर सकती हैं जो अन्य समुदाय की महिलाओं व समाज को प्राप्त हैं।
मुस्लिम समुदाय की तत्त्ववादी शक्तियों के प्रतिगामी फतवों का मुस्लिम महिलाओं पर क्या प्रभाव दिखता है?
असल में ये जितने भी फतवे जारी होते हैं वे अधिकतर मुस्लिम महिलाओं के विकास को ही बाधित करते हैं। उनकी आजादी एवं मौलिकता छीनते हैं। जबकि ऐसे कानून या फतवे होने चाहिए जो महिलाओं को प्रगति का रास्ता दिखा सकें। लेकिन विडम्बना यह है कि जब कोई कानून बनता है जो मुस्लिम महिलाओं के अधिकार या महिलाओं को प्रगतिशीलता की ओर ले जाने में मदद करने की बात करता है तब उनके ही नेता कहना चाहिए स्वयंभू नेता सबसे पहले उस कानून को धर्म विरोधी बताकर विरोध कर देते हैं और उसके खिलाफ विकास को ही रोक देते हैं।
क्या उन फतवों का मुस्लिम महिलाओं को विरोध करना चाहिए?
बिल्कुल जो फतवे महिला विरोधी हों, खराब हों उनका विरोध करना ही चाहिए। मसलन अभी जो तलाक पर फतवा आया है वह खराब था साथ ही चुनाव लड़ने पर मुस्लिम महिलाओं के लिए फतवा जारी हुआ कि उन्हें चुनाव नहीं लड़ना चाहिए यह भी खराब फतवा था। अभी महिला इमाम बनने पर मुस्लिम महिलाओं पर पाबंदी लगा रखी है। जबकि अन्य देशों में महिला इमाम होने पर कोई रोक नहीं है। हालांकि इस फतवे के खिलाफ महिलाएं लगातार संघर्ष कर रहीं, भोपाल, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली आदि राज्यों में महिलाओं ने अपना महिला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी गठित किया है। हाँलाकि उसका भी विरोध हुआ मगर वे निरन्तर संघर्ष कर रही हैं इसी तरह तमाम मुस्लिम महिलाओं को ऐसे फतवों का विरोध करना ही चाहिए।
एक स्त्री जब अपने स्वाभिमान के लिए या आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के लिए घर से बाहर निकलती है तो वह पुरुषों की अपेक्षा कितने स्तरों पर संघर्ष करती है?
एक स्त्री जब पुरुष के मुकाबले आत्मनिर्भर होने के लिए बाहर निकलती है तो देखिए जहाँ पुरुष को बहुत आसानी से सहमति मिल जाती है वहीं जब एक लड़की उसी की उम्र की उसी के बराबर पढ़ी-लिखी घर से बाहर निकलकर कुछ करना चाहती है तो उससे कहा जाता है कि तेरी शादी होकर दूसरे घर जाना है। तुझे घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए। अगर वह उस सीमा को लांघकर बाहर निकलती भी है तो जहाँ वह काम के लिए जाती है वहाँ उनके अधिकारी या सहकर्मी पुरुष और ज्यादातर पुरुष ही होते हैं वे भी उसको हेय दृष्टि से देखते हैं। एक बेचारगी का चोगा उसे ओढ़ा दिया जाता है वहाँ भी वह उस बेचारगी के भाव को तोड़ने के लिए लड़की है जबकि वह अपनी क्षमताओं के साथ उन क्षमताओं के बल पर समाज में कुछ कर पाने के लिए बाहर निकल रही है। लेकिन समाज अभी तक यह मानने को तैयार नहीं है कि यह उसका अधिकार है और वह भी पुरुषों की तरह समान रूप से आत्मनिर्भर और स्वतंत्र होकर जी सकती है। सच बात यह भी है कि वे चाहते भी नहीं कि महिला खुद अपने पैरों पर खड़ी हो सकें। हालांकि हम कह सकते हैं कि हमारा समाज बहुत आगे निकल गया है और बहुत सारी लड़कियाँ अब घर से बाहर भी निकल रही हैं परन्तु समाज, परिवार इससे भी डरता है कि आत्मनिर्भर होकर वह खुद अपने फैसले करने लगेगी और फिर हमारी बात तो मानेगी नहीं जहां मरजी हो जैसे हो चली जाएगी। इसलिए अगर कुछ करेगी नहीं तो खाएगी क्या और जब भूखी रहेगी तब हमारे पैरों पर ही आकर गिरेगी इस तरह की अनेक दिक्कतों का सामना उसे आज भी करना पड़ता है।
आधुनिक समाज में पढ़ी-लिखी महिलाओं के शोषण का क्या कारण मानती हैं आप?
वही है सबसे अहम्‌ उसका आत्मनिर्भर न होना। क्योंकि पढ़-लिखकर भी वह दूसरों पर निर्भर रहती है तो आधी गुलामी तो उसकी वहीं से शुरू हो जाती है। दूसरे केवल अक्षर ज्ञान या डिग्री ले लेने से उसकी चेतना का विकास नहीं होता क्योंकि समाज या परिवार उसे सिर्फ इसलिए पढ़ाता है कि वह अपने भाइयों या शादी के बाद पति की एक अच्छी असिसटैण्ट बनकर कार्य करे अगर वह उनके कहे अनुसार सहयोग नहीं करती तो उसे बुरा समझा जाता है उसे पढ़ाई के दौरान या कभी भी यह आभास नहीं कराया जाता कि पढ़-लिख कर तुम स्वतंत्र बन सकती हो और खुद फैसले लेकर तुम अपना जीवन अपने तरीके से जी सकती हो। उसकी पढ़ाई या उसकी डिग्री सिर्फ उसके दहेज के रूप में मान ली जाती है कि शादी में पाँच लाख लगाऐंगे ऊपर से हमारी लड़की पढ़ी-लिखी है और शादी के बाद उसका पति भी उसे स्वतंत्र फैसले लेने का अधिकार नहीं देता वह भी उसे सिर्फ घर में सजाकर रखना चाहता है यह कहने को कि उसकी बीबी एम.ए., बी.एड. है और वह चार दीवारी में कैद होकर सब तरफ से उत्पीड़ित होती रहती है और तब अगर वह चाहती भी है खुद के लिए कुछ करना तो समाज और सबसे ऊपर उसका पति उसे यह इजाजत नहीं देता और वह रास्ता नहीं खोज पाती।
स्त्री के विवाह को क्या आप बंधन समझती हैं?
नहीं भी समझू अगर समाज जिस तरह लड़के लिए सोचता है कि पहले वह अपने पैरों पर खड़ा हो तब शादी की जाए अगर इसी तरह लड़की के लिए भी सोचा जाए तो। जबकि ऐसा नहीं होता और उसे बोझ की तरह पहले ही हटाने की कोशिश की जाती है दूसरे यह कि शादी को बंधन तब भी नहीं कहा जाए कि अगर शादी के समय जिस तरह दो बिजनेस मैन पार्टनरशिप करते हैं और अगर उनमें आपसी तालमेल ठीक नहीं बैठ पा रहा है तो वे आसानी से अलग भी हो जाते हैं। अगर विवाह को भी इसी तरह मानसिक रूप से तैयार होकर किया जाए कि अगर दोनों में से एक कोई धोखा दे रहा है, परेशान कर रहा है तब दूसरे पार्टनर को उसके जीवन से अलग होने का स्वतंत्र अधिकार हो, यदि पुरुष स्त्री को धोखा देता है या मर जाता है या कहीं चला जाता है तब उस स्त्री को दूसरा जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता हो तब शादी बंधन नहीं लगेगी। और वह अपने पति की अच्छी सहयोगी भी रहेगी परन्तु अमूमन होता यह कि पुरुष चाहता है कि वह वही करेगी जो वह चाहता है।

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क