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आधुनिक समाज में नारी-मुक्ति का प्रश्न

- डॉ० जय प्रकाश यादव
आधुनिक समाज के लिए नारी मुक्ति कोई अमूर्त या काल्पनिक अवधारणा नहीं है, बल्कि एक यथार्थवादी और ठोस अवधारणा है जबकि इसके समर्थक अभी बहुत कम हैं। इनमें से बहुत ऐसे हैं जो सतही मन से इसका समर्थन करते हैं और निजी जिन्दगी में अपनी पत्नी के साथ क्रूरता से व्यवहार करते हैं जबकि मंच से इसका जोरदार विरोध करते हैं। इस अवधारणा का सीधा सम्बन्ध सामाजिक होने के कारण लगातार पिसने वाली स्त्री के जीवन के उन पड़ावों से है जिसमें वह पुरुष की सामंती मानसिकता का साक्ष्य प्रस्तुत करती है। लोग वर्ग की बात करते हैं दलित, मुस्लिम, अगड़ा, पिछड़ा, किन्तु किसी भी वर्ग का पुरुष नारी के लिए सिर्फ पुरुष ही साबित होता है। स्पष्ट है कि स्वयं को गुलामी से मुक्ति की आवाज उठाने वाला पुरुष वर्ग भी नारी के लिए वही व्यवस्था, कायदे-कानून रखना चाहता है जो स्वयं उसे स्वीकार्य नहीं हैं। स्त्री उसी समाज का अविभाज्य अंग है, जिसे पुरुषों ने अपने स्वार्थ में निर्मित किया है। इसलिए नारी की मुक्ति इस सामाजिक ढाँचे में बदलाव के बिना असंभव है। क्योंकि नारी मुक्ति समूचे समाज की वास्तविक मुक्ति का अनिवार्य अंग है। समाज में जागृति के लिए सबसे पहले स्त्रियों को जागृत करना जरूरी है। उनकी गतिशीलता से ही परिवार, गाँव तथा देश सभी में गतिशीलता पैदा होगी। व्यवस्था की प्रकृति बदलने से ही समाज बदलता है। नारी मुक्ति से जुड़े प्रश्न को समझने के लिए नारी शोषण के केन्द्र सामाजिक, सांस्कृतिक पहलुओं की ओर ध्यान देना जरूरी है, और इनसे मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष करना आधुनिक समाज का परम कर्त्तव्य है। आज जो पुरुष मौलिक अधिकारों मनुष्य की स्वतंत्रता शोषण एवं अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष की बात करता है, उसी के द्वारा नारियों की गुलामी को वैधता प्रदान करने का कोई औचित्य नहीं है। साथ ही उसका यह मंतव्य नारी मुक्ति के लिए दोगली नीति का परिचायक है।
मानवतावादी दृष्टिकोण से देखने पर यह पता चलता है कि नारी दासता पुरुष के लिए कोई प्रतिष्ठा एवं स्वाभिमान का विषय नहीं है बल्कि मानवीय सभ्यता पर कलंक है। पुरुष द्वारा स्त्री के प्रति भेदभाव को लक्षित करती हुई आशापूर्ण देवी ठीक लिखती हैं कि ‘‘पुरुष बड़ी ग़लती करे तो भी कुछ नहीं होता। पर नारी की छोटी-सी ग़लती पर उसे कड़ा दण्ड दिया जाता है। जिस समाज को मानव ने बनाया, उसी समाज की दृष्टि में मानव और मानव के बीच यह भेद क्यों?''१
इतिहास में इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि पुरुष अत्याचारों के विरुद्ध स्त्रियाँ व्यक्तिगत रूप से आवाज उठाती थीं किन्तु उनकी संख्या कम होने के कारण उनकी आवाज बहुत दूर तक नहीं जा पाती थी। १९वीं सदी के प्रथमार्द्ध में यूरोप में एवं बीसवीं सदी के भारत में व्यापक रूप से स्त्री की समस्याओं को लेकर पुरुष अत्याचार के विरुद्ध नारी मुक्ति के लिए आन्दोलन प्रारम्भ हुए। इसके फलस्वरूप नारी मुक्ति और पुरुषों से बराबरी का अनेक दृष्टियों से समर्थन किया गया। जिससे कि वह अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास कर सके वह भोग्या और निरीह प्राणी मात्र न रहे।
इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि समाज के सारे नियम पुरुषों द्वारा अपने हित साधन में ही गढ़े गये। इनमें समाज की आधी आबादी स्त्री की कोई भूमिका नहीं रही। पुरुष अपनी कामोत्तेजना की शांति के लिए बहु-विवाह का नियम बनाया गया। राजाओं एवं नवाबों के हरमों में ढेर सारी स्त्रियाँ ऐसी होती थीं जो सुहाग की रात के बाद फिर कभी अपने पति का मुँह नहीं देख पाती थीं। पति की चिता में पत्नियाँ ही जिन्दा जल उठती थीं। हमें एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहाँ पुरुष पत्नी के साथ चिता में जल गया हो। पुरुष पत्नी के मरणोपरान्त पुनर्विवाह कर लेता था किन्तु स्त्री को ऐसा करने की अनुमति नहीं थी। सीमोन द बोउआर का कथन सटीक बैठता है कि-''औरत जन्म से ही औरत नहीं होती, बल्कि बढ़कर औरत होती है। कोई भी जैविक मनोवैज्ञानिक या आर्थिक नियति आधुनिक स्त्री के भाग्य की अकेली नियंता नहीं होती। पूरी सभ्यता ही इस अजीबो-गरीब जीव का निर्माण करती है।''२
आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने नारी स्वतंत्रता को बहुत अधिक बढ़ावा दिया है किन्तु समस्त नारी की शिक्षा का प्रतिशत अभी बहुत ही कम है। भारत के गाँवों में बालिकाओं को जो शिक्षा दी जा रही है, उसका केन्द्र बिन्दु बालिकाओं को आदर्श गृहणी बनाना है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि बालिकाओं को शिक्षा ऐसी दी जाए जिससे वे स्वतंत्र होकर अपनी अस्मिता, अस्तित्व एवं स्वाभिमान की रक्षा के लिए समर्थन बन सकें। आज विश्व में तमाम महिला आन्दोलन सक्रिय हैं। अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर तक महिला आयोगों का गठन एवं सम्मेलनों का आयोजन हो रहा है। इसके बावजूद, पुरुष अपना दबदबा कायम रखने के लिए बराबर कोशिशें कर रहा है। विज्ञान एवं टैक्नोलोजी से जुड़ी ढेर सारी चीजें नारी विरोधी साबित हो रही हैं। पुरुष वर्ग ने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए परिवार नियोजन की सारी जिम्मेदारी केवल स्त्रियों के ऊपर डाल दी है। गर्भ निरोधक उपाय का अधिकांश तरीका केवल स्त्रियों के लिए ही आरक्षित है। गर्भरोधी आपरेशन की पुरुष अपना नहीं बल्कि पत्नी का कराने में अधिक रुचि लेता है, जबकि पुरुष नसबंदी स्त्री की अपेक्षा अधिक कारगर एवं आसान होती है। इसके बावजूद पत्नी को ही नसबंदी के लिए बाध्य किया जाता है।
परिवार एवं विवाह जैसी सामाजिक संस्थायें भी नारी को उसकी स्वतंत्रता से विमुख करने का माध्यम साबित होती रही हैं। थोपे गये विवाह के चंद दिन बाद ही पत्नी एवं पति के बीच घृणा का भाव पैदा होने लगता है और दोनों के परस्पर सम्मान, स्नेह एवं काम सौन्दर्य में कमी आने लगती है। जिससे परिवार में स्त्री का जीवन घुटन भरा गुलामों-सा हो जाता है। अन्ततः इस दासता को वह अपनी नियति मानकर जिन्दगी जीती जाती है। ‘छिन्नमस्ता' उपन्यास में प्रभा खेतान ने परिवार एवं विवाह के इस ढाँचे को तोड़ते हुए आँख मूंदकर वैवाहिक बन्धन को स्वीकार न करने वाले पात्रों का सृजन किया है। उपन्यासों में ‘प्रिया' कहती है - ‘‘क्यों? क्या चुटकी भर सिंदूर से ही पत्नी कहलाने का हक मिल जाता है और बीस वर्ष बिना सात फेरे के बंधन को यों ही नकार दिया जा सकता है?''३ निश्चित रूप से समाज के इस पुरुषवादी ढाँचे के तोड़े बगैर नारी मुक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है। समाज की आधुनिकता एवं प्रगतिशीलता ने स्त्रियों को इस ओर कदम बढ़ाने के लिए पूरी तरह प्रेरित किया हैं जिससे नारी की गुलामी को समाप्त करने के लिए पारिवारिक ढाँचा तोड़ा जा रहा है। संयुक्त परिवार का ढाँचा टूटने से औरतें अपने सास-ससुर, देवर-ननद आदि के अत्याचार से मुक्ति का अनुभव कर रही हैं। इस संदर्भ में फ्रेंच नारीवादी लेखिका सिमोन द वोउआर का यह कथन प्रासंगिक हो उठता है कि ‘‘आर्थिक विकास के कारण औरत की समकालीन स्थिति में आगे भारी परिवर्तनों ने विवाह संस्था को भी हिला दिया है। विवाह अब दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच एक पारस्परिक समझौते से उत्पन्न बन्धन है, जो व्यक्तिगत तथा पारस्परिक होता है।''४ आज समाज की सारी नैतिक जिम्मेदारी औरतों के सिर ही मढ़ दी जाती है। धर्म के ठेकेदार स्त्री के ही चारित्रिक पतन की ज्यादा चिन्ता करते हैं। पुरुष वर्ग को पूरी तरह इससे छूट दे दी जाती है। दया, प्रेम, करुणा, त्याग, समर्पण आदि जैसे मानवता के गुण स्त्रियों में ही खोजने की कोशिश की जाती है। प्रभा खेतान के उपन्यास ‘छिन्नमस्ता' की पात्रा प्रिया पुरुष की इसी चालाकी को बेपर्दा करती है। अब वह समझ गयी है कि समर्पण, त्याग, प्रेम ये सब पुरुष अहम्‌ की तुष्टि के निमित्त निर्धारित उपेक्षाएँ हैं। औरत को यह सब इसलिए सिखाया जाता है कि वह इन शब्दों के चक्र-व्यूह से कभी न निकल पाए ताकि युगों से चली आती आहुति की परम्परा को कायम रखे।
कानून स्त्री स्वतंत्रता को वैधता जरूर प्रदान करता है। फिर भी इसमें छिपी कमियों की वजह से पूरी तरह कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। आज स्त्री के साथ घटित होने वाले बलात्कारों की संख्या इस बात का प्रमाण है कि भारतीय कानून व्यवस्था भी स्त्री के लिए एकदम नाकारा साबित हो चुकी है। कानून प्रक्रिया की जटिलता ने एक स्त्री को न्याय की दहलीज से कोसों दूर कर दिया है। चाहें बलात्कार का मामला हो या दहेज, कुप्रथा या वेश्यावृत्ति का, कहीं भी कोई कानून कारगर साबित नहीं हो रहा है। आज दिनों दिन बलात्कार बढ़ते जा रहे हैं, दहेज के चलते स्त्रियों की हत्या की जा रही है, वेश्यावृत्ति एवं डांस बार का धंधा सरेआम सरकार की नाक के नीचे धड़ल्ले से चल रहा है।
स्त्री की जगह घर के अंदर है और पुरुष की बाहर यह धारणा अब भी काम कर रही है। लोग मानते हैं कि पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में कम क्षमता होती है। वे घर के बाहर के कार्य नहीं कर सकतीं। जबकि वे घर के अंदर के तमाम अनुत्पादक कार्य बड़ी मेहनत से करती रहती हैं। अब धीरे-धीरे लोगों की इस धारणा में बदलाव आ रहा है जो नारी मुक्ति की दिशा में अच्छा संकेत है। आधुनिक एवं प्रगतिशील स्त्रियाँ लगभग सभी क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का जोरदार परिचय दे रही हैं और पुरुषों के बराबर ही नहीं बल्कि उनसे आगे जा रही हैं। आज वे न केवल डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापिका बन रही हैं बल्कि हवाई जहाज, रेलगाड़ी भी चला रही हैं। चाहे खेल का मैदान हो या राजनीति का सब जगह वे मौजूद हैं। कल्पना चावला एवं सुनीता विलियम्स ऐसी स्त्रियों के ही नाम हैं जिन्होंने अंतरिक्ष की यात्रा करके पुरुष श्रेष्ठता के मिथ को तोड़ दिया है। अंतरिक्ष में उन्होंने उस साहस एवं धैर्य का परिचय दिया है जिसकी कल्पना केवल पुरुष वर्ग से ही की जाती रही थी।
स्त्री घर के अंदर खटती रहती है किन्तु उसके किए गए श्रम का कोई मूल्य नहीं होता। वह रात-दिन मूल्यहीन मेहनत करती है। किसी कार्य के न हो पाने की स्थिति में उसे परिवार के सदस्यों से डाँट भी मिलती रहती है। घर में काम करने वाली इन स्त्रियों को ठीक से पेटभर भोजन एवं तन ढ़कने को कपड़ा भी नहीं मिल पाता। वहीं पुरुषों को बिना कार्य किए अच्छा भोजन एवं अच्छा कपड़ा मिलता है। आजीविका कमाने में पुरुष की अपेक्षा स्त्री को हीन समझा जाता है और उन्हें मजदूरी भी कम दी जाती है। अतः जरूरत है सामाजिक स्तर पर स्त्रियों को बड़ी संख्या में उत्पादन में भागीदार बनाने की। साथ ही साथ घरेलू कामकाज में उसकी भागीदारी को कम करके परिवार के सभी सदस्यों का हाथ बँटाना भी जरूरी है। कामकाजी स्त्री के ऊपर शक करना पुरुष की फितरत-सी बन गयी है, जो नहीं होनी चाहिए। स्त्री के लिए काम पर घर से निकलना बड़ा चुनौती भरा कार्य है। घर के बाहर, अकेली स्त्री के लिए अभी कोई जगह महफूज नहीं है। घर के बाहर आफिस हो या बाजार या रास्ता हर जगह वह हमेशा असुरक्षित ही महसूस करती है। ऊपर से पति यदि उसे किसी पुरुष से बातचीत करते देख लेता है तो उसके चरित्रपर संदेह करने लगता है और आपस में मारपीट की नौबत आ जाती है। विडम्बना यह है कि पति चाहे जितनी स्त्रियों के साथ घूमे और बातचीत करे वह इन सब आरोपों से मुक्त ही रहता है। इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि स्त्री को आत्मनिर्भर बनाया जाए और पुरुष पर उसकी निर्भरता कम की जाए। वे दोनों एक-दूसरे पर बराबरी की तर्ज पर निर्भर रहें। इसके लिए जरूरत है ऐसी परिस्थितियाँ बनाने की जिससे स्त्री को पुरुष की बैशाखी की जरूरत महसूस न हो। वह अपने आप सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक मुक्ति की ओर अग्रसर हो।
धार्मिक अनुषंग स्त्री मुक्ति के रास्ते में बहुत बड़ी बाँधा है। विडम्बना यह है कि ये अनुषंग महिलाओं के लिए ही बनाये गये हैं। हिन्दू धर्म में ‘करवा-चौथ', ‘तीज' आदि के व्रत केवल स्त्रियाँ ही रखती हैं। पुरुष के लिए ऐसा कोई विधान नहीं है। ये बन्धन हैं जिनसे स्त्री गुलाम बनायी जाती है पुरुष वर्चस्व कायम किया जाता है। ‘रक्षाबन्धन' जैसे त्यौहार में बहन ही भाई को राखी बाँधती है और भाई के दीर्घायु होने की कामना करती है। भाई ऐसा क्यों नहीं करता? गीतांजलि श्री अपने उपन्यास ‘भाई' में ठीक लिखती हैं कि ‘‘पत्नियाँ पतियों के लिए तो व्रत रखती हैं, पर पति पत्नियों के लिए क्यों नहीं''? दुपट्टा क्यों जरूरी है? स्त्री-पुरुष के बीच आखिर सेक्स और प्रेम के सम्बन्ध में खुली बातचीत क्यों नहीं हो सकती। मैं कुछ समझी, कुछ नहीं समझी पर खून में ज्वर हो आया। सबके आगे आँखें झुक गईं। जो माँ बन सकती है, वह अपवित्र कैसे''५
लोग दलीलें देते हैं कि हमारा समाज आधुनिक हो रहा है। इक्कीसवीं सदी महिलाओं की सदी होगी। किन्तु आँकड़े बताते हैं कि समाज की आधी आबादी महिला की स्थिति एकदम असन्तोषजनक है। शिक्षा का क्षेत्र हो या सेवाओं का, घर-परिवार का क्षेत्र हो या राजनीतिक का हर कहीं उसकी स्थिति दोयम दर्जे की बनी हुई है। अपने सन्तोष के लिए बड़े कारनामे किए कुछ महिलाओं के नाम गिनाए जा सकते हैं किन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या वे आम भारतीय महिला के रोल मॉडल बन सकती हैं? आज भले ही भारत के इतिहास में ‘प्रतिभा पाटिल' प्रथम महिला राष्ट्रपति का तमगा पहन ली हों किन्तु उनके लिए महिला मुक्ति से जुड़े सवालों से टकराना आसान न होगा।

संदर्भ :-
१. आशापूर्ण देवी, प्रथम प्रति श्रुति, जनसत्ता, १६ जुलाई १९९५
२. प्रभा खेतान, (अ.) स्त्री : उपेक्षिता, पृ. १२१
३. वही, छिन्नमस्ता, पृ. १४६
४. वही, (अ.) स्त्री : उपेक्षिता, पृ. १७७
५. गीतांजलि श्री, भाई, पृ. ५३-५४

Comments

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