Skip to main content

मानस का स्वरूप एवं विश्लेषण

डॉ0 मोहम्मद फीरोज खान
मानस का आशय स्वरूप एवं विश्लेषण मानस मनुष्य के शरीर में निहित मस्तिष्क का एक महत्त्वपूर्ण गुण है। इस शब्द का संवेदना विचार एवं अनुभूति से गहरा संबंध है। सामान्यजन इसे मन के नाम से जानते हैं। वस्तुतः मानस मन का ही परिष्कृत रूप है। मानस अंग्रेजी भाषा के माइण्ड का हिन्दी रूपान्तर है। इसके लिए साइकी शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। हिन्दी शब्द कोश में मानस शब्द का अर्थ - मन एवं हृदय से लिया गया है इस शब्द को अर्थ विस्तार देते हुए मन से उत्पन्न होने वाले भाव मन में सोचा हुआ विशुद्ध मनोबल से उत्पन्न मन के द्वारा होने वाला१ आदि माना गया है। मन में उत्पन्न होने वाले विचार भाव आदि आकार रहित होते हैं इन्हें मनुष्य अनुभव मात्र ही कर सकता है। कला एवं साहित्य इन भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति होते हैं। मनोविज्ञान के क्षेत्र में मन का विश्लेषण करते हुए इसके अर्थ में तथा इससे जुड़ी आस्था में निरन्तर परिवर्तन होता रहा है आरम्भ में मानस का अर्थ बहुत कुछ आत्मा के समान था अर्थात्‌ वह अदृश्य अस्पष्ट चेतन-सत्ता जो हमारे अनुभवों का आधार है जो परमशुद्ध चैतन्य स्वरूप है। मनोविज्ञान की परिवर्तित अवधारणा के अनुसार मानस से उस संगठन का बोध होता है। जिसके विभिन्न विभाग अथवा शक्तियाँ हैं।२ परन्तु यह धारणा मन की एकरूपता को खण्डित करती है। अतः बाद में चेतना से उत्पन्न संघटित सत्ता ही मानस मानी गई है। ग्रीक भाषा में प्रयुक्त हुए साइकी शब्द प्लाटिनस के दर्शन में प्रयुक्त हुआ है। वहाँ इसका अर्थ विश्वात्मा से है। इसी अर्थ में प्लेटो ने अपने दर्शन में साइकी शब्द का प्रयोग किया है। इसके पश्चात्‌ साइकी शब्द को परमसत्ता से जोड़ा गया। मानविकी पारिभाषिक कोश में वर्णित है प्राचीन विचार प्रणालियों में साइकी शब्द का संकेत उस रहस्यमयी सत्ता की ओर है जिसमें भौतिक और आध्यात्मिक शक्ति का संयोग है और जो प्रकृति को सजीव रखती है। आगे चलकर इस शब्द का प्रयोग मन या आत्मा के अर्थ में किया जाने लगा।३ भारतीय वाड्मय में भी मानस की व्याख्या व्यापक फलक पर की गई है। वेदों एवं शास्त्रों के आधार पर मन को अनुभूति का आधार माना गया है। मन की प्रमुख चार वृत्तियाँ बुद्धि मन अहंकार और चित्त साहित्य कला एवं समाज को व्यवस्थित रूप प्रदान करते हैं। भारतीय चिन्तन के आधार पर मन का तात्पर्य समझना शारीरिक भौतिक आध्यात्मिक या अन्य अनेक कारणों से कठिन अवश्य है परन्तु असम्भव नहीं। मन्यतै इतिमानः जो विचार करता है उसे मन कहने की सामान्य व्युत्पत्ति है। पंच ज्ञानेन्द्रियाँ गोचर होने के कारण उनका वर्णन करना सम्भव है परन्तु मन अगोचर होने के कारण उसे अतेन्द्रिय कहा गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी इन्द्रियाणां मनश्चस्मि कहा है। मन को ही आध्यात्म के विरोध में या विकास में मनुष्य का सहायक माना जाता है। इसीलिये मन एवं मनुष्याणां कारवां वन्धमोक्षयों कहा गया है। वेदान्त में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ मानी गई हैं - मन बुद्धि अहंकार और चित्त ये चार भेद कार्यपरक हैं उद्देश्यपरक नहीं। फलस्वरूप इसमें भेद करना आवश्यक नहीं है। मन प्राणियों के अन्तःकरण का वह अंश है जिससे वे अनुभव इच्छा बोध विचार और संकल्प-विकल्प करते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से यह उन सभी शक्तियों का उद्गम या मूल है जिनके द्वारा हम सब काम करते सब बातें जानते और याद रखते तथा सब कुछ सोचते समझते हैं। इसलिये वैशेषिक ने इसे उभयात्मक अर्थात कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों के गुणों से युक्त माना है।४ पाश्चात्य विचारकों का मानस के सम्बन्ध में प्रस्तुत किया गया दृष्टिकोण भारतीय चिन्तन से कुछ अलग नहीं है। वहाँ भी मन के विषय में भाँति-भाँति की कल्पनायें एवं विचार मिलते हैं। अरस्तु ने मन को चिन्तन या मनन करने की शक्ति माना है तो हीगेल ने तर्कों से भरे हुए विचारों का विकास माना है। हार्बट स्पेन्सर ने मन को अज्ञेय विचारशक्ति को जाग्रत करने वाला माना है और फ्रायड ने तो मन के लिये अचेतन विचार और अचेतन इच्छाएं महत्त्वपूर्ण मानी हैं। देकार्त ने मन को मस्तिष्क का एक हिस्सा माना है। डेमोक्रेटस अफ़लातून सुकरात आदि विद्वानों ने अपने तत्त्व ज्ञान के माध्यम से मन के बारे में बहुत कुछ कहा परन्तु मन इतना चंचल है कि वह उनकी पकड़ में आ नहीं सका। इसी कारण मन के स्वरूप की निश्चित कल्पना कोई भी नहीं कर सका। फिर भी अनेक मनोवैज्ञानिकों के विचारों से सहमत होकर हम कह सकते हैं कि मन वह अदृश्य परन्तु प्रकाश्य स्थान है जहाँ अनुभवों का बोधन संगठन एवं पुनर्रचना होती है इसीलिए अनेक वर्षों से मनुष्य क्रिया-प्रतिक्रिया एवं उसकी वैचारिक पार्श्वभूमि को मन की संज्ञा दी जाती रही है। मन चेतन का अखण्ड प्रवाह है। डोरान के मतानुसार मन निष्क्रिय अवयवों का समूह नहीं है बल्कि वह एक ऐसी अति उत्तम शक्ति है जो मनुष्य के व्यवहार को सुरक्षित रखती है एवं मार्गदर्शन करती है।५ भारतीय चिन्तन के आधार पर मन का कार्य मनन करना माना गया है पाश्चात्य आदि विचारक अरस्तु ने भी मन को चिन्तन मनन करने वाली शक्ति माना है। हाबर्ट स्पेन्सर ने अज्ञेय शक्ति को जाग्रत करने वाला माना है अज्ञेय शक्ति से सम्बन्ध होने के कारण वह अगोचर है ऐसा माना गया है। फ्रायड द्वारा भी इसे अचेतन मन की इच्छाओं का निवास गृह माना गया है। शास्त्रीय दृष्टि से क्रोध दया ममता विचार संकल्प-विकल्प आदि का आधार भी मन ही है मन के विषय में पाश्चात्य विचारकों का भी मानना है कि जहाँ अनुभवों का बोधन पुनर्रचना संगठन से होता है वह मन है। मन के विषय में भारतीय चिन्तन में कहा गया है कि यह कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के गुणों से युक्त है। डोरान ने भी मन को वह कर्मशील शक्ति माना है जो मनुष्य को व्यवहारिक रूप से परिष्कृत करती है तथा वह मनुष्य की पथ प्रदर्शिका है। मन ही वह शक्ति है जो मनुष्यों में इच्छाओं को जन्म देती है विचारों को आकार देती है तथा उसे जीवन से जुड़े समस्त क्रियाकलापों का बोध कराती है। इसका कार्य-क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। शास्त्रान्तर्गत मन को समस्त क्रिया-कलापों का संचालनकर्ता माना गया है। परन्तु वहाँ पर मानस का अर्थ - मन हृदय से अलग है। शास्त्र की दृष्टि से यह कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के गुणों से युक्त है। यह आत्मा शरीर तथा हृदय तीनों से भिन्न एक स्वतन्त्र तत्त्व है और अन्तःकरण की चार वृत्तियों में से एक वृत्ति के रूप में माना गया है।६ यद्यपि शास्त्र ने इसे हृदय से इतर माना है परन्तु मन का सम्बन्ध बुद्धि और हृदय दोनों से ही है। इसके संयोग से चेतना का जन्म होता है। चेतना बाह्‌य जगत से प्रभावित होती है। हृदय उसे अनुभव करता है बुद्धि विचार करती है और मानस द्वारा अनुभूति अभिव्यक्ति पाती है। मन के विषय में योग वशिष्ठकार ने कहा है कि मन सर्वशक्तिमान है मन में जगत को रचने की शक्ति है। जगत की रचना करने से मन पूर्णतः स्वतन्त्र है जगत्‌ उत्पादन की समस्त शक्ति मन में है। समस्त इच्छायें इस मन से ही उद्भूत होती हैं। चिन्तन संवेदन स्मरण प्रत्यक्षीकरण कल्पना यह सब एक मन के ही विभिन्न व्यापार हैं। दुःख-सुख भी इन मन के अधीन हैं। व्यक्ति का सम्पूर्ण शरीर इस मन का ही बनाया हुआ है। व्यक्ति के सब क्रिया-कलापों या व्यवहारों को जानने के लिए उसके मन को समझना आवश्यक है।७ हृदय एवं मस्तिष्क के योग से निर्मित मानस में चेतना का संचार होता है। चेतना के विषय में डॉ० रामविलास शर्मा ने कहा है कि चेतना मस्तिष्क में निहित पदार्थ का एवं प्रकृति के एक अंश का गुण है। इसलिए वास्तविक विचार केवल चिन्तन द्वारा अपने भीतर से उत्पन्न नहीं किये जा सकते। सही विचार के लिये मानव चेतना और बाह्‌य जगत का सम्पर्क आवश्यक होता है इस कारण ज्ञान का आधार प्रत्यक्ष अनुभव है।८ मानस के क्रिया-कलापों का उल्लेख करते हुए पाश्चात्य विचारक राबर्ट हम्फ़ी ने मन को एकाग्रचित्त किये जाने वाले मनोयोग और उसमें सहयोगी उन समस्त अनुभूतिगत भावों को लिया है जो परिष्कृत होकर विचार के रूप में सम्प्रेषित होते हैं और यह महत्त्वपूर्ण कार्य मनुष्य की जाग्रत चेतना करती है जो मानस की बौद्धिक वृत्ति से सम्बद्ध है। वह लिखते हैं कि चेतना में मानसिक अवधान के उस समस्त क्षेत्र का अन्तर्भाव है जिसमें पूर्ण चेतना से लेकर मन के विभिन्न स्तरों से होते हुए सविवेक सम्प्रेषणीय जागरूकता के उच्चतम स्तर तक का क्षेत्र सम्मिलित है।९ पाश्चात्य विचारक फ्रायड एडलर एवं युंग ने मनुष्य के क्रियाकलापों का आधार उसके मानस और चेतना का अत्यन्त वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया। जिनमें फ्रायड का मनोविश्लेषणवाद सर्वाधिक अर्थपूर्ण एवं प्रभावशाली है। उसके चिन्तन ने न केवल मनोविज्ञान को नई दिशा प्रदान की अपितु साहित्य में जीवन्त सामाजिक पात्रों के चित्रण में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया कहानी एवं उपन्यास का काल्पनिक पात्र हो अथवा कविता में व्यक्त आत्मानुभूति उससे इतर पाठक रचनाकार की सफल अभिव्यक्ति के कारण कृति से पूरी आत्मीयता पूर्वक जुड़ जाता है। मनुष्य सामाजिक एवं संवेदनशील प्राणी होने के कारण समाज में घटित होने वाली घटनाओं से प्रभावित होता है और कृति में व्यक्त भाव एवं विचार उसके अन्तर्मानस में जन्म लेते हैं यह महत्त्वपूर्ण कार्य मानस द्वारा सम्पन्न होता है। फ्रायड की मान्यता है कि भौतिक या बाह्‌य घटनाओं के समान ही मानसिक घटनायें होती हैं और उनके पीछे कार्य कारण भाव रहता है जिसे प्रायः नियतिवाद कहते हैं। दूसरी मान्यता अचेतन मानव की कल्पना थी जिसके अनुसार वह तीन रूपों में उपलब्ध होती है -१० चेतन मानस पूर्व चेतन मानस अवचेतन मानस फ्रायड मनुष्य मन को समुद्र में तैरते हिमखण्ड के समान मानता है। मन की व्यक्त होने वाली क्रिया उसका अल्पांश मात्र ही है। जिस प्रकार हिम का अधिकांश भाग जल के भीतर तथा कुछ भाग जल के ऊपर होता है उसी प्रकार चेतन मन वह हिमांश है जो दिखाई पड़ता है और अचेतन मन हिम का लुप्तांश है। अचेतन मन का कार्य व्यापार अत्यन्त व्यापक परन्तु अस्पष्ट है। अर्द्धचेतन मन इन दोनों के बीच का भाग है। जिसमें अचेतन की परछाई पड़ती है। फ्रायड इस सम्बन्ध में अपना मत प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि -चेतन और अचेतन में द्वन्द्व चलता रहता है। चेतन मन व्यक्ति परिवार और समाज की नैतिकता और मर्यादा के संस्कारों से ओतप्रोत होता है। अतः जब अचेतन की इच्छायें और वासनायें चेतन के धरातल पर आने लगती हैं तब चेतन के संस्कार उसका प्रतिरोध और निषेध करते हैं वे असामजिक एवं अनैतिक वासनाओं का दमन करते हैं इस दमन के कारण मानसिक वर्जनायें और ग्रन्थियाँ निर्मित हो जाती हैं इन ग्रन्थियों के कारण मानसिक विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं परन्तु कभी-कभी अचेतन की इच्छायें और वासनायें मन के द्वारा परिष्कृत होकर कलाओं और संस्कृतियों का निर्माण करती हैं।११ फ्रायड दमित इच्छाओं के सुंसस्कृत एंव परिष्कृत रूप को ही साहित्य एवं कला की मूल प्रेरणा मानते हैं। उनका विचार है कि साहित्यकार कल्पनाशील होता है। अतः वह अपनी वर्जनाओं को काम-प्रतीकों के रूप में प्रकट करता है। कला और साहित्य सृजन काम प्रतीकों का पुनर्निर्माण है।१२ मनुष्य द्वारा उसकी वासनाओं पर प्रतिबंध लगाये जाने पर कुण्ठा जन्म ले लेती है। परिष्कार न हो पाने पर यह विकृत हो जाती है पर मन द्वारा परिष्कृत होकर यह सभ्यता और संस्कृति का भी निर्माण करती है। फ्रायड का मानना है कि मानस द्वारा इसका उदात्तीकरण होता है उदात्तीकरण से ग्रन्थियाँ खुलती हैं और कुण्ठायें दूर हो जाती हैं। इस उदात्तीकृत परिष्कृत क्रियाकलाप से सभ्यता का विकास और सांस्कृतिक मूल्यों का निर्माण होता है। कला और साहित्य भी इसका एक रूप है। कला सम्पे्रषण परक है। अतः उसका सामाजिक महत्त्व है तथा उसका साधारणीकरण भी होता है। उसी के द्वारा समाज के चेतन संस्कार बनते हैं।१३ इस प्रकार मानस की अनिवार्य वृत्ति चेतना को व्याख्यायित करते हुए फ्रायड ने न केवल उसे साहित्य कला एवं संस्कृति का निर्माता माना है साथ ही साथ उसे अनिवार्य सामाजिक व्यवस्था एवं चेतना का संस्कारक पथ प्रदर्शक भी घोषित किया है। एडलर वैयक्तिक परम्परा का विचारक है। उसका मानना है कि मनुष्य द्वारा किया जाने वाला असामान्य व्यवहार उसकी कुण्ठा का परिणाम होता है। मनुष्य में मानसिक या शारीरिक किसी भी प्रकार की कमी अवश्य होती है जिसका अनुभव कर वह हीनता से ग्रस्त रहता है और उस कमी को पूरा करने का प्रयास करता हैं इसी कथ्य की पुष्टि एडलर इस प्रकार करते हैं -प्रायः प्रत्येक मनुष्य में किसी प्रकार की आंगिक क्रियात्मक या मानसिक कमी पायी जाती है। जिसको वह अनुभव करता है और उसमें हीन ग्रन्थि का निर्माण होता है। हीन भावना के कारण जब मनुष्य विशेष रूप से इस कमी को पूरा करने की कोशिश करता है तब उसमें श्रेष्ठता की भावना का उदय होता है।जो लोग दम्भी और अपने को श्रेष्ठ प्रदर्शित करने का प्रयत्न करते हैं तथा असभ्य व्यवहार करते हैं वे वास्तव में हीनता की भावना से ग्रस्त होते हैं।१४ मनुष्य के व्यवहार को निर्धारित करने वाली प्रवृत्तियां हैं - इदं अहं उच्च अहं पहली अवस्था मनुष्य को अपने आप को पहचानने की होती है यह महत्त्वपूर्ण कार्य विवेक करता है। मन द्वारा परिष्कृत होने पर उसमें अपने अस्तित्त्व का आभास होता है और फिर अपने भीतर की कुण्ठा को छुपाने का प्रयास करते हुए उसमें प्रदर्शन की भावना आ जाती है। यदि मन द्वारा मानवीय व्यवहार को सही ढंग से नियन्त्रण न किया जाय तो मनुष्य के मानसिक रोगी होने की प्रबल सम्भावनायें बनती हैं। ऐसी स्थिति में सामाजिक इकाई के रूप में मनुष्य को नियन्त्रित रखने एवं सुसंस्कृत करने का कार्य मानस का होता है। पाश्चात्य मनोविश्लेषण विचारकों की परम्परा में एडलर का योगदान भी महत्त्वपूर्ण है। एडलर ने लोबीड़ो के स्थान पर मनुष्य में आत्म प्रकाशन लाने पर बल दिया है। वह अचेतन को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता है। उसने उसे दो स्तरों में विभाजित किया है - प्रथम वैयक्तिक और द्वितीय जातीय या सामुदायिक अचेतन। फ्रायड ने अचेतन को दमित इच्छाओं और वासनाओं का रहस्यमय भण्डार माना है। पर जुंग का मत है कि यह वैयक्तिक अचेतन का अंश है। इससे परे एक सामूहिक या जातीय अचेतन का स्तर है।सामूहिक अचेतन में जुंग के अनुसार एनिमस और एनीमा विद्यमान रहते हैं। एनिमस नारी सुलभ गुणों का समूह है और एनीमा पुरूष गुणों का समूह है।१५ युंग मानव व्यक्तित्त्व को दो भागों में विभाजित करते हैं अन्तर्मुखी एवं बहिर्मुखी। एक वह जो अपनी प्रतिभा गुण एवं विचारों को व्यक्त नहीं कर पाते दूसरे वह जो सहज एवं सशक्त रूप से अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर लेते हैं। दोनों ही स्थितियों में मानसिक शक्तियां कार्यरत रहती हैं। जुंग ने इन मानसिक शक्तियों के चार प्रकार बताये हैं - १ विचार २ भाव ३ संवेदन एवं ४ सहज ज्ञान। विचार बुद्धि पक्ष का कार्य है संवेदना इन्द्रियों का और भाव हृदय का। सहज ज्ञान सत्य की वह अनुभूति है जिसका आभास चेतन मन को नहीं होता इसे छठेन्द्रिय और इन्द्र पुराण भी कहते हैं। जिसके अन्तर्गत आने वाले समय एवं घटना का आभास मनुष्य करता है और सम्भावनायें व्यक्त करता है। मानस का विश्लेषण करते हुए जुंग ने आत्मा के अन्तर्गत एक स्वायत्व ग्रन्थि की चर्चा की है। इसमें वह शक्ति होती है जो कलाकार को अनुशासित और निर्देशित करती रहती है। वास्तव में कला सौन्दर्य है और उसी की रचना में उसका उद्देश्य निहित है।१६ कलाकृतियों में अभिव्यक्ति हेतु कलाकार कला के तत्त्वों जैसे बिम्ब प्रतीक मिथक आदि का सहारा लेता है। इन कलात्मक तत्त्वों को कला में प्रयुक्त करते समय मानस क्रियाशील रहता है वहीं इन तत्त्वों को अर्थानुकूल स्थान पर प्रयुक्त करने के लिये कलाकार को प्रेरित करता है। पाश्चात्य विचारक मैक्डूगल मानवीय वृत्तियों पर विचार करते हुए उसकी संख्या बारह बताते हैं। इन वृत्तियों के तीन प्रकार हैं - ज्ञानात्मक वह जो ज्ञान द्वारा अर्जित एवं परिष्कृत है। भावात्मक वह जो अनुभूति द्वारा अर्जित है। क्रियापरक वह जो व्यवहार एवं कार्य व्यापार से उत्पन्न होती है। मैक्डूगल मनुष्य में निहित शक्ति की चर्चा करते हैं वह शक्ति जो मनुष्य को बल प्रदान करती है कर्मशील होने की प्रेरणा देती है साथ है उसमें जीवन के प्रति लालसा जगाती है। उनके विचार से -प्रत्येक व्यक्ति में एक ऐसी महत्त्वपूर्ण शक्ति होती है जो उसे बल प्रदान करती है और कार्य करने के लिये प्रेरणा देती है वही शक्ति मनुष्य में जिजीविषा भी उत्पन्न करती है और अन्त तक क़ायम रखती है। जीवन की प्रत्येक इच्छा जैविक आधार पर विकसित होती है और आगे चलकर नैसर्गिक वृत्ति का रूप धारण करती है।१७ मनुष्य द्वारा किये जाने वाले क्रियाकलाप एवं कार्य व्यापार आदि का संचालन वह शक्ति ही करती है और यह सब कुछ अत्यन्त स्वाभाविक रूप में होता है। वह शक्ति निःसन्देह मानस ही है। मनुष्य में निहित शक्ति का विकास बाह्‌य परिवेश से प्रभावित होता है। यही कारण है कि कल्पना शक्ति चिन्तन आदि मनुष्य भिन्न-भिन्न रूप में पाये जाते हैं। सबका जीवन दर्शन भी अलग-अलग होता है। पाश्चात्य विचारक जीवन को संघर्ष मानते हैं। विरोधी शक्तियों से टकराना मनुष्य और प्रकृति का नियम है। मनुष्य द्वारा बनाये गये मार्गदर्शन में निजत्त्व होता है। हैवलाक दर्शन जैसे जटिल सिद्धान्त को अचेतन मन की देन मानते हैं। वह लिखते हैं कि दर्शन का निर्माण चेतन सत्ता के नियन्त्रण से बाहर है। दार्शनिक सिद्धान्त का स्वरूप अवचेतन मन द्वारा बनता है जिस पर हमारा कोई वश नहीं।१८ साहित्य में व्यक्त संवेदना को भी हैवलाक संघर्ष का ही परिणाम मानते हैं। मानस द्वारा वह मानव-संघर्ष को सही अर्थ एवं दिशा प्रदान करते हैं। मनुष्य का मानस ही उसे समाज में स्थान देता है उसे विकास की दिशायें प्रदान करता है। समाज में आने वाले परिवर्तन मानस का ही परिणाम है। मानस द्वारा मनुष्य का बाह्‌य एवं आन्तरिक जगत का ज्ञान होता है। संवेदना बोध अवधारणा चिन्तन दृष्टिकोण इत्यादि मानस के ही प्रतिरूप हैं। प्रत्ययवादियों का विचार है कि सम्पूर्ण प्रकृति के पास आत्मा तथा मानस होता है यह सर्वात्मवाद का दार्शनिक रूप। अनेकानेक प्रत्ययवादी दार्शनिक सर्वमानस के खुले प्रतिपादक हैं केवल अत्युच्च रूप से संगठित भूतद्रव्य में निहित विशेष गुण के रूप में मानसिक कार्यकलाप की वैज्ञानिक समझ किसी भी प्रकार के सर्वमानस का खण्डन करती है।१९ मनोविज्ञान द्वारा मानस के विभिन्न विभागों का उल्लेख किये जाने पर उसके विखण्डित होने का सन्देह व्यक्त किया गया परन्तु वास्तविकता यही है कि समस्त क्रियाकलापों से संलग्न वृत्तियों का संचालन मानस ही करता है। उसी के विभिन्न उपभाग हैं जो चित्त चेतन अर्द्धचेतन तथा हृदय आदि नामों से अभिहित किये जाते हैं। समस्त कार्यों के मूल में मानस ही क्रियाशील रहता है। मानस के स्वरूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका अर्द्धचेतन मन की है। जिसमें संकलित अनुभवों एवं विचारों को हम स्पष्ट रूप से नहीं जानते परन्तु कहीं न कहीं वह भाव एवं विचार अपने होने का आभास देते रहते हैं। यदि अर्द्धचेतन मन को अनुभूतियों भावों एवं विचारों का भण्डार गृह कहा जाये तो अनुचित न होगा। चेतन मन में क्रियाशील विवेक जब अर्द्धचेतन मन के भावों एवं विचारों को स्पर्श करता है तब वह अनुभव एवं विचार स्पष्ट एवं कलात्मक रूप से अभिव्यक्ति पाने लगते हैं। अर्द्धचेतन के विषय में अमीलावेल ने कहा है कि अर्द्धचेतन का रचना प्रक्रिया में विशेष महत्त्व है।२० अवचेतन मन भी चेतनतर पक्षों में से एक है। यह चेतन ओर अचेतन के बीच की प्रक्रिया है। साहित्यकार और कलाकार इसी के सहयोग से कला एवं साहित्य का सृजन करते हैं। मनुष्य कभी-कभी अत्यधिक अचेतन अवस्था में रहता है। उसके सामने ऐसी स्थिति भी आती है जब वह अपने भाव से अपरिचित सा रहता है। वह अनजाने में ऐसा कुछ कर जाता है जिसे करना उसका ध्येय नहीं होता। मनुष्य का स्वभाव उसका व्यवहार एवं उसके द्वारा किये जाने वाले क्रियाकलाप उसके अचेतन मन से प्रभावित होते हैं। अचेतन के द्वारा आदमी ऐसा काम करता है जिसके मूल उत्स का ज्ञान उसे नहीं होता या मिथ्या ज्ञान होता है। उसी के द्वारा क्रिया निष्पन्न होती है वही हत्या करता है धर्म या अधर्म करता है पर वह उसके लिए बाध्य होता है लाचार रहता है वह कार्य उसकी असहायता बेबसी या लाचारी के रूप में होता है।२१ चेतन मानस के अन्तर्गत विवेक सक्रिय रूप से क्रियाशील रहता है। उसमें बोधात्मक शक्ति होती है। यद्यपि चेतन मानस का क्षेत्र सीमित है। समय-समय पर धुंधलकों में छुपी अव्यक्त अनुभूति चेतना के प्रकाश से टकराकर व्यक्त रूप पाती है।चेतन का अर्थ है विमर्शक विचारशील बुद्धि जो किसी भी वस्तु को अपने से अलग वस्तु के रूप में स्थिर कर विचार करती है।२२ चित्त भी मानस के कार्यक्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाता है। चित्त में चेतना जागृत होती है अनुभूति होती है। जगत का बोध कराने वाली शक्ति भी यह चित्त ही है। शून्यवादियों ने चित्त को अनास्तित्त्व और अनुत्पाद माना था किन्तु विज्ञानवादी चित्त का अस्तित्त्व मानते हैं और संसार को चित्त की भ्रान्ति के रूप में स्वीकार करते हैं।२३ चित्त से जुड़ी धारणा हो अथवा अन्य किसी भी विषय से इन सबके मूल में चेतना है। मानस का प्रमुख गुण उसकी चेतना है। चेतना स्वभाव से परिवर्तनशील है। समय परिस्थितियां परिवेश सामाजिक एवं पारिवारिक स्थिति चेतना के स्वरूप को विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। साहित्य में प्रायः हृदय पक्ष की चर्चा की जाती है। यह हृदय पक्ष कोमल भावनायें एवं कला पक्ष चेतना शक्ति की ही देन है। मानस का कोमल कल्पना एवं अनुभूति वाला भाव हृदय पक्ष एवं मानस के विवेक पक्ष से उत्पन्न भाग कला पक्ष कहलाता है। वस्तुस्थिति एवं घटना को देखने उसके महत्त्व को समझने का कार्य चेतना ही करती है। यदि हमारी चेतना अखण्ड और अविच्छिन्न न होती तो यह अनुभव हमें न होता। यह अखण्डता और अविच्छिन्नता साहचर्य से ही सम्भव होती है। विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं में साहचर्य के द्वारा इतना घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है कि वे मिलकर एक चेतना का अंग बन जाती है।२४ १९वीं शताब्दी में मस्तिष्क मानस को लेकर दी गयी परिभाषा केवल असहमति के लिये ही प्रेरित नहीं करती अपितु सोचने पर विवश करती है। वैज्ञानिक एवं दार्शनिक लॉक और न्यूटन ने मस्तिष्क के विषय में कहा है कि -मस्तिष्क केवल ऐसा पटल है जिस पर बाह्‌य जगत अपनी आकृतियां अंकित करता जाता है। इसलिए वह स्थूल जगत की रेखा-सीमाओं को अंकित करने का एक निष्क्रिय माध्यम है।२५ शरीर के सर्वाधिक क्रियाशील जागरूक एवं सक्रिय माध्यम को निष्क्रिय घोषित करना हज+म नहीं होता। मस्तिष्क पटल पर अंकित रेखायें अनुभव द्वारा ही सम्भव है और अनुभव की रेखाओं से मस्तिष्क चित्रांकित ही नहीं करता अपितु उसके आधार पर विचारों को भी जन्म देता है। यदि मस्तिष्क कार्य करना बन्द कर दे तो मनुष्य का विकास सम्भवतः रूक जायेगा। अर्द्ध विकसित मस्तिष्क का बालक अपनी क्षमतानुसार ही अनुभव करता है तथा व्यवहार करता है। अनुभव का आधार चाहे स्पर्श हो आस्वादन हो अथवा दृश्यगत हो उस पर होने वाली प्रतिक्रिया मस्तिष्क की ही होती है। प्लेटो के अनुसार साहित्य एवं कला अनुकृति की अनुकृति है। मस्तिष्क ही वह सक्रिय अंग है जो सृष्टि के ग्राह्‌य तत्त्वों को आत्मसात्‌ कर चिन्तन की दिशा प्रदान करता है। मानस की अनिवार्यतम्‌ इकाई चित्त जो मस्तिष्क से इतर नहीं है वह मनुष्य को चिन्तन प्रदान करती है साथ ही उसके व्यक्तित्त्व का विकास कर उसे सांसारिक प्राणियों में श्रेष्ठ स्थान प्रदान करती है। चित्त जगत का आभास देता है इसमें चेतना मुक्त विचरण करती है। प्रायः चेतना और चित्त एक अर्थ में लिये जाते हैं। इसके अन्तर्गत संवेदना चिन्तन अनुभूति आदि कार्य सम्पन्न होते हैं। डॉ० रमेश कुन्तल मेघ ने मानस के विविध स्वरूपों पर स्थान-स्थान पर मनोविश्लेषणात्मक ढंग से प्रकाश डाला है। उनका मानना है कि चेतना में निम्न प्रकार की मानसिक क्रियायें शामिल हैं जैसे -संवेदना प्रत्यक्षीकरण अवधारणा चिन्तन अनुभूति और संकल्प। इस तरह यह मन बुद्धि अहंकार का संश्लेस है जिसे चित्त भी कहते हैं।२५ चेतना मनुष्य को जीवन्त होने का आभास तथा विकास की नयी दिशा प्रदान करती है। वह चेतना के आधार पर चिन्तन कर विवेक के आधार पर विचार व्यक्त करता है। चेतना एक चिन्तनात्मक अभिवृत्ति का द्योतक है जो व्यक्ति को स्वयं के प्रति तथा विभिन्न कोटि की स्पष्टता तथा जटिलता वाले पर्यावरण के प्रति जागरूक करती है। चेतना सामाजिक यथार्थता में संस्कृति पैटर्नो प्रतीकों मूल्यों विचारों और आदर्शों की भूमिका उद्घाटित करती है। चेतना का स्व रूप वैयक्तिक तथा हम रूप सामाजिक है।सामूहिक मस्तिष्क एवं संचित अवचेतन के विभिन्न उपसिद्धान्त आदि चेतना को एक व्यक्ति तक सीमित नहीं करते बल्कि उसे उन्मीलन की प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करते हैं।२७ मानस की सक्रिय भूमिका में समाज समसामयिक परिस्थितियों से पूरी तरह प्रभावित होता है। सामाजिक मनुष्य अपने चिन्तन पक्ष द्वारा विचार प्रस्तुत करता है। साइके (मानस या शक्ति मनुष्य की मानसिक दुनिया में इच्छा क्रिया के जालों को फैलाती तथा बटोरती है।२८ चित्ति में चेतन अर्द्धचेतन अचेतन का द्वन्द्व चलता रहता है। निष्कर्ष रूप में विकास की दिशा यही से प्राप्त होती है। मानस की धारणा में बहुत व्यापक और महत धारणा निष्पन्दन क्रिया व्यक्ति और मानवता आदि का द्वन्द्वात्मक समाहार हो सकता है।२९ चेतना मानस का वह महत्त्वपूर्ण अंग है जिसमें मन एवं मस्तिष्क समन्वित रूप से क्रियाशील रहते हैं। अनुभूति और चिन्तन का समायोजित रूप चेतना है और इसी आधार पर मनुष्य का चारित्राक विकास होता है। हिन्दी विश्वकोश में इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि चेतना मन एवं मस्तिष्क के संयोजन से जन्म लेती है। जिससे अनुभूतिगत ज्ञान विकसित होता है। मनोविज्ञान की दृष्टि से चेतना मानव में उपस्थित वह तत्त्व है जिसके कारण उसे सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती है। इसी के कारण हमें सुख-दुःख की अनुभूति भी होती है और हम इसी के कारण अनेक प्रकार के निश्चय करते तथा अनेक पदार्थों की प्राप्ति के लिये चेष्टा करते हैं।३० हमारे अन्दर होने वाली प्रतिक्रियाओं एवं आभासों के केन्द्र में चेतना कार्य करती है। चेतना मन एवं मस्तिष्क के संयोग से जन्म लेती है जिससे अनुभूतिगत ज्ञान विकसित होता है। मानस के इस चेतन अवचेतन और अचेतन रूप से ही मनुष्य का पूरा स्वरूप निर्मित हुआ है। बहुत कुछ समाज में ऐसा है जिसे हम देखते हैं और सचेत रूप में उसे ग्रहण करते हैं परन्तु बहुत कुछ ऐसा है जिसे हम चेतन अवस्था में ग्रहण नहीं करते पर वह अचेतन मन में घर बनाती जाती है। अवचेतन मन की वह स्थिति है जहाँ हम वस्तु स्थान घटना से प्रभावित तो होते हैं परन्तु स्पष्टतया नहीं मात्र उसका आभास ही कर पाते हैं। चेतन अवस्था क्योंकि मनुष्य के व्यक्तित्त्व का निर्माण करती है। इस दृष्टि से यह मनुष्य का अनिवार्य गुण है। चेतना में ही मनुष्य का अहम्‌ भाग रहता है। यहीं विचारों का संगठन होता है। अवचेतन में स्मृतियाँ संगठित होती हैं। प्रायः हम किसी व्यक्ति को देखते हैं हल्का-फुल्का ध्यान तो होता है पर अवचेतन में चले जाने के कारण स्मरण नहीं होता। उस समय स्पष्ट रूप से हम अपनी चेतना पर पड़ी धुन्ध को हटाने का प्रयास करते हैं और सफल होते हैं। अचेतन मन से अभिप्राय यह है कि साधारण रूप से चेतन स्तर पर होने वाली क्रियाओं का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं कर पाते। अचेतन मन में हमारे ऐसे व्यक्तिगत और जातीय अनुभव जमा रहते हैं जिनका ज्ञान मनोविश्लेषण में प्रयुक्त की जाने वाली कुछ विशेष प्रणालियों सम्मोहन उन्मुक्त सहचर और स्वप्नों की व्याख्या द्वारा ही हो सकता है।अचेतन मन के अनुभव या विचार संचित नहीं रखते हैं। केवल उनका पुनरोत्पादक हो सकने की सम्भावना रहती है।३१ मनुष्य समाज की इकाई है वही सृष्टि का सर्वाधिक विवेकी जीव है बुद्धिमान होने के कारण वह समस्त प्राणियों से सर्वाधिक प्रगतिशील परिवर्तनशील प्रवृत्ति वाला शक्तिशाली जीव है। आज सभ्य सुसंस्कृत एवं व्यवस्थित समाज ही मनुष्य की पहचान है इन सबके मूल में निवास करने वाली सक्रिय गुण सम्पन्न शक्ति मानस की ही है। मनुष्य का अन्तर्मन किसी भी विषय पर कई बार विचार करता है उसके भीतर निरन्तर द्वन्द्व चलता रहता है। अन्ततः एक पक्ष विजयी होता है यह द्वन्द्वरत भाव विपरीत होते हैं। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में ऐसी द्वन्द्वात्मक स्थिति का उल्लेख मिलता है - भाव ही मानव व्यवहार को स्थगित करते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मानस के अनिवार्यतम्‌ गुण भाव की व्यापक व्याख्या प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य में सर्वप्रथम विकास पाने वाले भाव राग और द्वेष है जिनसे आदिम प्राणियों में वासना का विकास हुआ। शुक्ल जी की मान्यता है कि रति शोक क्रोध आदि मनुष्य में पहले से ही वासना रूप में विद्यमान थे। आचार्य शुक्ल भावों का विश्लेषण करते हुए उसके तीन अंग की बात करते हैं - पहला वह अंग जो प्रवृत्ति या संस्कार के रूप में अंतस्संज्ञा में रहता है वासना दूसरा वह अंग जो विषय बिम्ब के रूप में चेतना में रहता है और भाव का प्रकृति स्वरूप है (भाव आलम्बन आदि की भावना तीसरा वह अंग जो आकृति या आचरण में अभिव्यक्त होता है और बाहर देखा जा सकता है अनुभव और नाना प्रयत्न।३२ भाव का प्रथम अंग उत्तेजनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। यह प्रधान गुण है। दूसरे अंग में आलम्बन पक्ष से जुड़ने पर जो अनुभूति होती है उसके परिणामस्वरूप विचार जन्म लेते हैं। तीसरे अंग के अन्तर्गत भावों का प्रत्यक्ष रूप आता है। जो रचना आकृति आचरण आदि के माध्यम से व्यक्त होता है। भावों के सम्बन्ध में वही भाव महत्त्वपूर्ण है जिसमें चेतना के भीतर आलम्बन आदि प्रत्यय रूप से प्रतिष्ठित होंगे।३३ मनुष्य द्वारा किये जाने वाले व्यवहार एवं आचार-विचार मानस द्वारा संचालित होते हैं। मानवीय व्यवहार के दो रूप होते हैं। प्रथम - बाह्‌य आचरण जो प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होता है। द्वितीय - आन्तरिक आचरण जो स्पष्ट एवं अव्यक्त होता है। मानव व्यवहार को वर्गीकृत करते हुए आचरणवादियों ने मनुष्य के आचरण को बाह्‌य तथा आन्तरिक दो भागों में बाँटते हुए बाह्‌य आचरण को दृश्यगत बताया और आन्तरिक आचरण के विषय में कहा है कि - आन्तरिक आचरण वे हैं जिन्हें साधारण रूप में देखना सम्भव नहीं होता जिनको देखने के लिए किसी विशिष्ट प्रणाली का आश्रय लेना पड़ता है। सोचने-विचारने की क्रिया तथा मनोवेगों को इसी आन्तरिक प्रतिक्रिया की श्रेणी में लिया जा सकता है।३४ साहित्य मनुष्य द्वारा की गयी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है। यहाँ पर मानस का कार्य वैश्विक स्तर पर प्रभावशाली एवं महत्त्वपूर्ण होता है जीवन की दुरूहताओं में जब मनुष्य की संवेदनात्मक अनुभति का हास होने लगता है तब काव्य अथवा साहित्य उसमें भावना का संचार करते हैं। सृष्टि की समस्त कलाओं आदि का अवलोकन आलम्बन रूप में करने के पश्चात्‌ मन में कुछ भाव उद्दीप्त होते हैं और मस्तिष्क इस पर विचार करता है तत्पश्चात्‌ मनुष्य वैज्ञानिक स्तर पर इसे अभिव्यक्ति प्रदान करता है। कविता मनुष्य की अनुभूतिगत अभिव्यक्ति होती है। आचार्य शुक्ल ने कविता क्या है नामक निबंध में सैद्धान्तिक काव्योत्पत्ति के आधारबिन्दुओं की ओर प्रकाश डाला है -वेग स्वरूप मनोवृत्तियों का सृष्टि के साथ उचित सामंजस्य स्थापित करके कविता मानव जीवन के व्यापकत्त्व की अनुभूति उत्पन्न करने का प्रयास करती है। यदि इन वृत्तियों को समेटकर मनुष्य अपने अन्तःकरण के मूल रागात्मक अंश को सृष्टि से किनारे कर ले तो फिर उसके जड़ हो जाने में क्या सन्देह हैk३५ शुक्ल जी स्पष्ट करना चाहते हैं कि मानव सृष्टि से पूर्णरूपेण जुड़ा हुआ है। उसकी जीवन्तता इसी सृष्टि में निहित है। उसका अन्तर्मन भी सृष्टि से जुड़ता है जो उसकी ओर आकृष्ट होता रहता है। चेतना को विकास देने में भी प्रकृति का बड़ा योगदान है। सामाजिक परिस्थितियाँ हो अथवा नैसर्गिक परिवर्तन सदैव मानस सक्रिय रूप से कार्यरत रहता है। यदि ऐसा न हो तो मनुष्य जड़ माना जायेगा। मानस के अन्तर्गत प्राप्त होने वाली अनुभूति आन्तरिक भी होती है बाह्‌य भी। उसमें तर्कपूर्ण विचार भी जन्म लेते हैं भावनात्मक विचार भी। परन्तु इनके मूल में मानस है। मनुष्य का मस्तिष्क जो सर्वाधिक तार्किक है और संवेदनशील भी है उसमें कोमल और तर्कपूर्ण दोनों प्रकार के विचार एवं चिन्तन जन्म लेते हैं। मानस की व्याख्या करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि-कुछ विषय आन्तरिक अनुभूति के क्षेत्रा में आते हैं और कुछ दूसरे विषय बाह्‌य वस्तुओं की सामन्जस्य विधायिनी तर्कना के क्षेत्र में परन्तु सर्वत्रा एक ही वस्तु दोनों को समझती और प्रकाश करती है - मनुष्य की बुद्धि।३६ मनुष्य का चित्त आवश्यकतानुसार कार्य को निर्धारित करता है। मनुष्य का चित्त सर्वत्र कार्य कारण सम्बन्ध को स्पष्ट करता है। चित्त के द्वारा अनुभूति प्राप्त होती है। काव्य अथवा उपन्यास आदि साहित्य में व्यक्त भाव को चित्त अनुभव करता है और आनन्द प्रदान करता है। मनुष्य का चित्त सर्वत्र कार्यकारण की श्रृंखला खोजता रहता है विशेषकर अनुभूति और वेदना के क्षेत्र में।३७ मानस ही वह प्रभावशाली शक्ति है जिसके माध्यम से जीवन जगत्‌ और साहित्य से मनुष्य भाव ग्रहण करता है। सुख-दुख हर्ष-विषाद उन्माद उल्लास आदि क्षणों का आभास मानस द्वारा ही सम्भव है। मानस के सहयोग से रचनाकर जीवन की घटनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करता है और सामाजिक उस अभिव्यक्ति का अनुभव कला एवं साहित्य के माध्यम से करता है। भारतीय रस-सिद्धान्त मानस से सम्बद्ध है। रस के स्वरूप की व्याख्या करते हए डॉ० नगेन्द्र ने उसे मानस द्वारा निर्मित कल्पनाजन्य आनन्द की प्राप्ति माना है। उन्होंने अपनी बात की पुष्टि करने के लिए एडीसन को उद्धृत किया है। जिसमें वे कल्पना से होने वाले आनन्द को मन की उस क्रिया का परिणाम मानते हैं जो मूल वस्तुओं से उत्पन्न विचारों की इन वस्तुओं की मूर्ति चित्र अथवा संगीतात्मक अभिव्यंजना से उत्पन्न विचारों के साथ तुलना करती है।३८ इस प्रकार मन वस्तुगत मानस बिम्बों की तुलना कलात्मक रूप से अभिव्यन्जित मानस बिम्बों के साथ करता है। मानस के अन्तर्गत अनुभूति के पश्चात्‌ जन्में भाव अभिव्यक्ति पाते हैं। प्रायः भावों को हृदय का विषय कहा जाता है जबकि हृदय मस्तिष्क से अलग नहीं है। मानस द्वारा व्यक्त होने वाला जीवन का संवेदनात्मक पक्ष सर्जना के क्षेत्र में भाव पक्ष कहलाता है। मस्तिष्क के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी एक में मुक्तिबोध के कल्पित पात्र यशपाल द्वारा कहा गया है वक्तव्य -मुझे तो बुद्धि द्वारा हृदय को सम्पादित एवं संशोधित करना है। इस कथन की पुष्टि करता है कि मस्तिष्क ही हृदय का संचालक है।३९ मन का विकास सामाजिक परिवेश के अनुरूप होता है। सम्पूर्ण वातावरण मनुष्य को प्रभावित करता है। प्रायः मनुष्य को विपरीत परिस्थितियों के साथ संघर्ष करना पड़ता है। सामाजिक परिवेश संस्कृति परम्परा आदि की भिन्नता के कारण है कि सामाजिक प्राणियों के आचार-विचार व्यवहार साहस चिन्तन अभिव्यक्ति आदि में भिन्नता पाई जाती है। इसका कारण परिवेशजन्य अनुभूति के विभिन्न स्तर हैं। मुक्तिबोध का मानना है कि इस वर्ग विभाजित समाज में मन भी अलग-अलग अवस्था में विभाजित हो जाता है और मनुष्य द्वन्द्वात्मक सामाजिक व्यवस्था से जूझता है। इस संघर्ष का उचित मूल्यांकन करने का साहस सामान्य प्राणी में नहीं होता जो इस संघर्ष से उबर जाते हैं वह साहित्य की रचना करते हैं। इस विचार की अभिव्यक्ति मुक्तिबोध ने इन शब्दों में की है वर्ग विभाजित समाज में व्यक्ति का मन भी विभाजित होता है चाहे वह इसे स्वीकार करे चाहे न करे। मन के इस विभाजन के रूप अनेक होते हैं। वे प्रच्छन्न भी रह सकते हैं अप्रच्छन्न भी। उनमें से कुछ विशेष कमजोरियों के रूप में प्रकट होते हैं जिन्हें व्यक्ति स्वीकार करता है (प्रकट या अप्रकट रूप में। युगान्तरकारी घटनाक्रमों का आघात बार-बार उसके हृदय पर होने पर भी उन कमजोरियों का शिकार होने के कारण वह उनका उचित मूल्यांकन कर नहीं सकता।वर्ग विभाजित समाज में व्यक्ति इसी प्रकार के द्वन्द्वों से पीड़ित रहता है। उससे उबरने वाले व्यक्ति थोड़े होते हैं डूब जाने वाले अधिक।४० मुक्तिबोध के कथन से स्पष्ट है कि संघर्षमय परिस्थितियों से साक्षात्कार कर उसका मूल्यांकन करने वाले व्यक्ति सामान्य मनुष्यों से अलग होते हैं। वह आन्तरिक अनुभूतियों एवं विचारों का बाह्‌य परिस्थिति प्रदान करते हैं और सामान्य मनुष्य उन कृतियों द्वारा अपनी परिस्थितिजन्य वितृष्णाओं को शान्त करते हैं। मनोविश्लेषणवादी फ्रायड़ ने भी दमित इच्छाओं को ही कला एवं साहित्य में अभिव्यक्ति का आधार माना है। मस्तिष्क इच्छाओं को नियन्त्रित एवं सुसंस्कृत करने का कार्य करता है। मुक्तिबोध ने मानव मन के विविध स्तरों को माना है और इन मानसिक स्तरों का कारण विभाजित समाज को माना है। चेतना के विविध स्तरों की चर्चा डॉ० रामविलास शर्मा ने भी की हैं उनका मानना है कि चेतना के विविध स्तरों का निर्धारण सामाजिक वातावरण करता है। मनुष्य क्योंकि पूरी तरह उससे प्रभावित होता है अतः उसके चिन्तन की सीमा निर्धारित होती है। परिणामस्वरूप चेतना के इस स्तर की पहचान कर पाने में साधारण मनुष्य असमर्थ रहता है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक आस्था और सौन्दर्य में डॉ० रामविलास शर्मा लिखते हैं कि -आधुनिक मनोविज्ञान ने जो खोज की है उसके अनुसार यह चेतना जितने स्तरों पर अथवा जितने रूपों में कार्य करती है और जिन नियमों से परिचालित होती है। उन्हें बहुधा मनुष्य स्वयं नहीं जानता।४१ चिन्तकों द्वारा विचारों को भौतिक जीवन की प्रतिच्छाया माने जाने पर डॉ० रामविलास शर्मा सहमत होकर भी वह विचारों को केवल प्रतिबिम्ब मानने में आपत्ति व्यक्त करते हैं। समाज और तत्कालीन परिस्थितियाँ चेतना में नये विचार चिन्तन और कुछ नयी दिशायें होती हैं। मनुष्य सचेत होता है। पूंजीवादी व्यवस्था के विरूद्ध श्रमिक वर्ग की क्रान्ति इसका स्पष्ट परिणाम है। मनुष्य के विचार उसकी सामाजिक स्थिति को प्रतिबिम्बत करते हैं इसलिए वर्गों के भिन्न दृष्टिकोण उनकी भिन्न विचारधाराएँ होती है। किन्तु मानव चेतना में यह क्षमता है कि वह इस सामाजिक स्थिति से ऊपर उठ सके चिन्तन की भौतिक सीमाओं से ऊपर उठकर अपेक्षाकृत स्वतंत्र स्तर पर विकसित हो सके। सम्पत्तिशाली वर्गों में उत्पन्न होने वाले किन्तु सम्पत्ति हीन श्रमिक वर्ग की मुक्ति के लिये संघर्ष करने वाले मार्क्स एंगेल्स और लेनिन का जीवन मानव चेतना की इस क्षमता को सिद्ध करता है।४२ इस प्रकार स्पष्ट है कि डॉ० रामविलास शर्मा चेतना का विकास और उसमें जन्म लेने वाले विचार को समाज की देन तो मानते हैं पर छाया मात्रा नहीं वह प्रतिक्रिया भी हो सकती है। इन्द्रियों के माध्यम से मनुष्य संसार की वस्तुओं का अनुभव करता है। मस्तिष्क उस पर अपना विचार व्यक्त करता है। मन को इन्द्रियों का राजा भी कहा जा सकता है क्योंकि वह कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों का नियन्ता है। वह इन्द्रियों का नियन्ता होकर भी इन्हीं के माध्यम से अपने भावों विचारों को अभिव्यक्त करता है। मनुष्य को अपने मन का परिचय नहीं होता परिचय होता है केवल मन की कल्पनाओं इच्छाओं भावनाओं एवं विकारों का।४३ मन के सम्बन्ध में कहा गया है कि वही इन्द्रियों को अनुभव करता है तथा मानवीय व्यवहार को नियन्त्रित करता है। प्रसिद्ध उपन्यासकार जैनेन्द्र मन को व्यक्तिगत अनुभूति का आधार मानते है। वह वस्तु और आत्मा के बीच सम्बन्ध स्थापित करने वाली शक्ति मन को मानते हैं। उनके अनुसार चेतना जहाँ स्वकीयता धारण कर लेती है वही मन के व्यापार की सम्भवता है। मन स्वकीयता से आरम्भ होकर परकीयता के प्रति खुलता है। वह आत्मा और वस्तु के बीच बोधानुभूति का सेतु है। इसके द्वारा ही अभ्यंतर में बर्हिजगत की प्रतीति होती है।४४ बाह्‌य जगत और आन्तरिक जगत के मध्य तादात्म्य स्थापित करने का कार्य मन ही करता हैं अन्तर्मन के और भी कई स्तर हैं। जैनेन्द्र ने मन के अनेक स्तरों का उल्लेख किया है। आत्मा और वस्तु - दो क्षेत्रों के बीच सेतु बंध के रूप में होने के कारण मन के दो स्तर - बाह्‌य और अन्तः विशेषणों से युक्त होकर बर्हिमन और अन्तर्मन के रूप में सम्भव होते हैं। अन्तर्मन के अन्य स्तर भी है जिन्हें अन्तरतर मन तथा अन्तरमन मन कहा जा सकता है।४५ मन की बाहरी अवस्था वह है जो बाह्‌य वस्तुओं से प्रभावित होती है जो दृष्टव्य है और मन का अन्तर्गत अनुभूति से सम्बद्ध है। जो सुखद और आनन्ददायक होकर भी अस्पष्ट है। जैनेन्द्र विचारों को व्यक्तिगत मानते हैं जो मनुष्य की निजी अनुभूति का परिणाम होते हैं पर वह व्यक्त होकर जनसामान्य से जुड़ जाते हैं। इस प्रकार वह स्वकीया विचार खुलकर परकीया हो जाते हैं। साहित्य संगीत कला इत्यादि स्वकीया विचारों की प्रतिक्रियात्मक परिणति है। इलाचन्द्र जोशी का सम्पूर्ण कथा साहित्य मनोविश्लेषणवादी चिन्तन पर आधारित है। उन्होंने मन की अचेतन अवस्था में जन्म लेने वाले अस्पष्ट विचारों को अधिक प्रभावशाली एवं महत्त्वपूर्ण माना है। वह फ्रायड की इस मान्यता के समर्थक दिखाई पड़ते हैं कि साहित्य और कला मनुष्य की अव्यक्त दमित इच्छाओं की परिष्कृत कल्पनात्मक अभिव्यक्ति है। जोशी जी का सम्पूर्ण साहित्य मनुष्य की अंतश्चेतना में उठ रहे द्वन्द्वात्मक संघर्षों की अभिव्यक्ति करता है। वह मन के अचेतन कक्ष में जन्म लेने वाली भावनाओं को वह अद्भुत शक्ति मानते हैं। जिससे सचेत मन संचालित होता है। अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उपन्यासकार इलाचन्द जोशी लिखते हैं कि हमारे मन की ऊपरी सतह में जो भावनायें प्रतिपल उठती रहती हैं उनसे हम परिचित रहते हैं पर उस स्तर के नीचे जो भावनायें दबी पड़ी रहती हैं उनसे हम अपरिचित ही रह जाते हैं। मन के भीतर की गहराई में दबी हुई भावनाओं को यदि हम महत्त्वहीन समझें तो यह बड़ी भूल होगी। सच तो यह है कि हमारे सचेत मन में उठने वाली भावनाओं की अपेक्षा हमारे अन्तस्तल में दबी भावनायें कई गुना अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। हमारा सचेत मन उन्हीं दबी हुई भावनाओं द्वारा परिचालित होता है।४६ आधुनिक उपन्यासकार अज्ञेय का सम्पूर्ण साहित्य मनोविश्लेषणात्मक है। इनके उपन्यासों में प्रमुख रूप से मानसिक द्वन्द्व उभरकर सामने आया है। फ्रायड द्वरा अचेतन मन में जन्म लेने वाली कामवृत्तियों सैक्सुअल ऐप्रोच निराशा संशय द्वन्द्व आदि अज्ञेय के यहाँ सर्वत्र दिखाई पड़ता है। वह अचेतन मन की दमित इच्छाओं को कला के लिये आवश्यक मानते हैं। वह कुण्ठा और निराशा से मुक्ति का साधन उन आत्मानुभूतियों की अभिव्यक्ति मानते हैं जो मस्तिष्क में जन्म लेकर हाथ-पैर मारती रहती है। अज्ञेय के अनुसार साहित्य रचना में किसी भी कलासृष्टि में आत्माभिव्यक्ति न हो तो कृतिकार या रचयिता अपने को कुंठित अनुभव करता है या असफलता का बोध करता है।४७ अज्ञेय कला को कलाकार की आत्माभिव्यक्ति मानते हैं। यह वास्तविकता अधिकांश लोगों द्वारा मान्य है कि मानस सम्पूर्ण जीवन को संचालित करता है और साहित्य जीवनगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है। साहित्य कला संगीत का इतना बड़ा रचना संसार मानस द्वारा किये गये अनुभवों एवं विचारों की उसी के द्वारा की गयी कलात्मक एवं यथार्थपरक अभिव्यक्ति है। कलाकार एवं साहित्यकार अपनी मानसजन्य रचनात्मक क्षमता द्वारा जीवन के अनुभवों को कलात्मक बिम्बों प्रतीकों तथा मिथकों के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं तथा सामान्य पाठक मानस के सहयोग से उसे समझता है तथा आनन्द का अनुभव करता है। मनुष्य की दमित इच्छाओं में मात्रा कामवृत्ति ही नहीं आती। यद्यपि यह सर्वाधिक प्रबल वृत्ति है तथापि इससे इतर जीवन के अन्य संघर्ष यश धन सम्मान आदि भी साहित्य का विषय बनते हैं जिनसे मनुष्य का मस्तिष्क अछूता नहीं है। इच्छायें किसी भी रूप में हों वह साहित्य में एवं कला में साकार होती है। इन सबके पीछे मनुष्य की अव्यक्त चेतना क्रियाशील रहती है। मानस में जन्म लेने वाली चेतना के दो स्तर हैं जिनके विषय में भरत सिंह लिखते हैं कि चेतना का पहला धरातल है - साधारण चेतना का जिसमें सामाजिक मानव की चेतना में यथार्थ प्रत्यक्ष रूप से प्रतिबिम्बित होता है। दूसरा धरातल है - सैद्धान्तिक चेतना का जिसमें यथार्थ का प्रतिबिम्बन अत्यधिक गहरा होता है वह पूर्ण संचित चेतना कोश से जुड़ा होता है और वह चेतना के व्यवस्थित रूप में प्रकट होता है।४८ व्यक्ति का बौद्धिक जगत अलग-अलग होता है परन्तु सामूहिक रूप से वह सामाजिक चेतना बन जाता है। मस्तिष्क युग से प्रभावित होता है अतः जिस युग में साहित्य एवं कला की सर्जना हुई है उसमें उस युग की सामाजिक परिस्थिति की झलक किसी भी रूप में अवश्य मिलती है। यह सामूहिक चेतना का परिणाम है। यद्यपि युगीन विशेषतायें अलग-अलग ढंग से व्यक्तिगत रूप से मस्तिष्क में एकत्र होती है और अलग-अलग ढंग से मनुष्य परिस्थितियों से प्रभावित होता है। भरत सिंह इसी बात को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि व्यक्तिगत चेतना व्यक्ति का बौद्धिक जगत है। सामाजिक चेतना को व्यक्तिगत चेतना से अलग नहीं किया जा सकता परन्तु व्यक्तिगत चेतना सामाजिक चेतना का अंश मात्राक नहीं है। व्यक्तिगत चेतना एकत्रित चेतना है जो हर व्यक्ति में उन विशेषताओं को अलग अलग ढंग से एकत्रित करती है। जो उस युग की चेतना में आमतौर से पायी जाती है। यह संचयन खास विशेषताओं व्यक्ति की वर्गीय स्थिति और अलग-अलग व्यक्तिगत विशेषताओं जो व्यक्ति की शिक्षा योग्यता और जीवन-यापन की पद्धति का होता है।४९ दृश्य जगत की घटनाओं से प्रभावित होकर रचनाकार अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। यही बात हेनरी जेम्स भी कहते हैं उनके अनुसार, बाह्‌य जगत के कलाकार के मन पर जो प्रभाव होता था कलाकार उसकी प्रत्येक सूक्ष्म अनुभूति का चित्रण करता था।५० रचनाकार बाह्‌य दृश्य और उससे होने वाले अनुभवों का चित्रण तो करता है। साथ ही प्रतिक्रिया स्वरूप जन्म लेने वाले विचारों को भी व्यक्त करता है। प्रायः बुद्धि हृदय चेतना मन आदि शब्द अपने अलग अस्तित्व का भ्रम पैदा करते हैं। बुद्धि को तर्क एवं विवेक का चेतना को जागरूकता का हृदय को प्रेम एवं संवेदना का पोषक माना जाता है। जबकि इन सब के मूल में कार्यतर शक्ति मनुष्य का मानस अर्थात्‌ मस्तिष्क ही है जो सभी कार्य करता है। हाल ही में रूड़की में मस्तिष्क के रहस्यों पर व्याख्यान हुआ जिनमें पद्म भूषण से सम्मानित प्रख्यात न्यूरो सर्जन प्रो० पी०एन० टण्डन ने मानव मस्तिष्क की परतों को हटाते हुए दिल और दिमाग़ को लेकर पूर्व प्रचलित मान्यताओं का खण्डन किया और प्रेम को भी मस्तिष्क का ही विषय माना साथ ही कहा कि अभी तक यही समझा जाता है कि संवेदनाओं की खान हृदय है इसमें पूरी सच्चाई नहीं है। उन्होंने कहा कि मानव मस्तिष्क न सिर्फ तर्क का स्वामी है बल्कि भाव प्रणता भी मस्तिष्क के कारण ही सम्भव है।प्रेम जैसा विषय भी हृदय के बजाय मस्तिष्क का विषय है।उन्होंने यह भी कहा कि उम्र के हिसाब से मस्तिष्क में बदलाव नहीं होते लेकिन मस्तिष्कीय प्रक्रियाओं में परिवर्तन होते हैं।५१ मनुष्य का मस्तिष्क बाह्‌य वस्तुओं से प्रभावित होता है। उस वस्तु के सम्बन्ध में उसके मन में भाँति-भाँति के विचार जन्म लेते है। मनुष्य वस्तु समाज परिस्थितियों से प्रभावित होता है तत्पश्चात्‌ वह जैसा अनुभव करता है उसी प्रकार का व्यवहार करता है तथा रचनाकार अपनी रचनाओं में परिस्थितिजन्य कार्य व्यापार पात्रों एवं घटनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करता है। आचारवादियों ने मनुष्य के आचरण को दो भागों में विभाजित किया है बाह्‌य और आन्तरिक। बाह्‌य का अर्थ -दृश्य जिनको हम देख सकते हैं। आन्तरिक वे जिनको साधारण रूप में देखना सम्भव नहीं होता जिनको देखने के लिए विशिष्ट प्रणाली का आश्रय लेना पड़ता है। सोचेन-विचारने की क्रिया तथा मनोवेगों को इसी आन्तरिक प्रतिक्रिया की श्रेणी में लिया जा सकता है।५२ फ्रायड ने मनुष्य के संवेगों की चर्चा की है मस्तिष्क में प्रायः विपरीत भावों के बीच द्वन्द्व चलता रहता है इस द्वन्द्व के मध्य मनुष्य तनाव पीड़ा घुटन का अनुभव करता है। यह अत्यन्त स्वाभाविक और अनुभवगत निष्कर्ष है कि मानव मन में दो विपरीत भाव विद्यमान रहते हैं। एक ओर वह प्रेम करता है दूसरी ओर घृणा वह युद्ध के लिये भी तत्पर रहता है परन्तु शान्ति वार्ता के लिये प्रयत्नशील है।५३ वह सत्‌-असत्‌ पाप-पुण्य सभ्य-असभ्य शिष्ट पाश्विक आदि विचारों के साथ सूझता रहता है। उसके मन को सर्जना द्वारा सन्तोष प्राप्त होता है। प्रभावशाली मनुष्य अपनी कल्पनाशक्ति द्वारा आन्तरिक संवेगों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। दो विपरीत भावों के बाद जो विचार अधिक प्रबल होता है और जिसका आन्तरिक प्रवृत्ति से अधिक समन्वय स्थापित हो जाता है वही विचार जीवित रहता है। यह विचार उसी के अनुरूप अनेक विचारों को जन्म देता है। जिसके कारण मनुष्य का विशेष प्रकार का चरित्र स्वभाव अथवा व्यक्तित्त्व निर्मित हो जाता है।५४ इस प्रकार चेतना उसे निष्कर्ष प्रदान करती है। आन्तरिक प्रवृत्ति से समन्वय स्थापित करने की क्षमता सबमें अलग-अलग होती है। यही कारण है कि समाज में संवेदना विचार चिन्तन व्यवहार की दृष्टि से भाँति-भाँति के मनुष्य दिखाई पड़ते हैं। परन्तु सबमें एक शाश्वत शक्ति निहित है।मानव मन में अन्तनिर्हित शाश्वत शक्ति या सार्वभौम चेतन तत्त्व ही आत्मा कहा जाता है।५५ प्रायः मन को लेकर एक गूढ़ रहस्यात्मक स्थिति बनी रही है। मनुष्य के मन में जन्म लेने वाली कल्पना स्मृति स्वप्न आदि क्या है कार्य व्यापार को नियन्त्रित एवं संचालित करने वाली यह शक्ति क्या है ईश्वरवादियों ने मन को ईश्वर का रूप माना तथा अन्य ने मन को वस्तु द्वारा उत्पन्न चेतना एवं अनुभूति का स्पर्शकर्ता स्थूल अंग माना। परन्तु वास्तव में मन एक गुणात्मक सत्ता है। मन के रहस्य को खोजने वालों ने किसी स्थूल शारीरिक अवयव में यह क्षमता न पाकर एक आन्तरिककर्ता की कल्पना की और उसे मन कहा। शरीर से मन की भिन्नता व्यक्त करने के लिए यही कहा जाता है कि शरीर की विशेषता विस्तार है मन की विशेषता चिन्तन या विचार है। यह विश्वव्यापी मन में ईश्वर की ही एक संज्ञा बन गया।हीगेल जैसे कुछ ब्रह्‌मपरक प्रत्ययवादियों ने मन को बिल्कुल ही अमूर्त रूप में स्वीकार किया है। उनके लिए मन चेतन तत्त्व के अलावा कुछ नहीं है। ऐसे प्रयोग में मन तथा चेतन में कोई अन्तर नहीं रह जाता है।५६ चेतना आसपास के वातावरण से पूरी तरह प्रभावित होती है। वह मनुष्य में विद्यमान रहती है पर सुषुप्तावस्था में रहती है। समय एवं परिस्थितियों के साथ जाग्रत होती है। वातावरण सहृदय के मानस पटल पर अव्यक्त रूप से प्रभावशाली स्थान बनाता जाता है। परिणामस्वरूप कला एवं साहित्य जन्म लेते हैं। मनुष्य में चेतना अपने परिवेश से संचालित होती है। जाने-अनजाने कवि के मानस पर परिवेश अपना प्रभाव छोड़ता जाता है। परिवेश की सीमा रेखा में वर्तमान और अतीत दोनों ही आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में कलाकार साहित्यकार अपने परिवेश से अविछिन्न रूप से जुड़ा होता है। उसकी अनुभूति भी उसी परिवेश की उपज होती है। कलाकार एवं साहित्यकार के परिवेश को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। एक उसकी वैयक्तिकता या आन्तरिकता दूसरी प्रवृत्ति उसका भौतिक परिवेश है। कलाकार एवं साहित्यकार के आन्तरिक परिवेश का निर्माण संवेदना भाव एवं विचार से होता है। कलाकार एवं साहित्यकार का भौतिक परिवेश प्राकृतिक शक्तियों एवं बाह्‌य परिस्थितियों से संचालित होता है।५७ डॉ० श्याम सुन्दर दास साहित्य को मानव मन और स्वभाव की उपज मानते हैं।५८ मनुष्य समाज की घटनाओं से कभी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है कभी अप्रत्यक्ष रूप से। कभी-कभी उसे ज्ञान भी नहीं होता परन्तु उसके अन्तर्मन के किसी कोने में कोई घटना या दृश्य अपनी गहरी छाप छोड़ देते हैं और कुछ समय बाद प्रभावशाली घटना से होने वाला अनुभव किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति पाता है। चेतना द्वारा संकलित यह अनुभव व्यक्ति का व्यक्तिगत अनुभव होता है। परन्तु उससे जन्म लेने वाले भाव अधिकांशतः सबको प्रभावित करते हैं। भावों को विस्तार देने का कार्य भी मनुष्य के मानस की अनिवार्य वृत्ति चेतना द्वारा ही होता है। चेतना शब्द व्याख्या सापेक्ष होने के कारण अत्यन्त व्यापक है और इसमें स्मृति बुद्धि तथा मानसिक प्रक्रियाओं के लिए प्रयुक्त होता है। मानव के चेतन अवचेतन तथा अर्धचेतन मस्तिष्क की सभी क्रियाएँ इस मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के अन्तर्गत आती है।५९ चेतना मन से पूर्णतः परिचित मनुष्य अपने अचेतन मन से अनभिज्ञ रहता है। जैनेन्द्र के उपन्यासों में पात्रों की मनोविश्लेषणात्मक व्याख्या करते हुए डॉ० बलराज लिखते हैं कि चेतन मन में होने वाले द्वन्द्व के हर पहलू से पात्र अवगत होता है। लेकिन अचेतन द्वन्द्व के मूल कारणों को पात्र चाहने पर भी पकड़ने में असमर्थ रहता है। अचेतन द्वन्द्व की अवस्था में पात्र की क्रियाएँ बड़ी अटपटी और बेचैनी युक्त होती है। वह अनचाहा कर बैठता है और उसका मानसिक सन्तुलन अस्थिर हो जाता है। पात्रों के मन में होने वाले इन अन्तर्द्वन्द्वों को चित्रित करने के लिए उपन्यासकार को विशेष प्रयास करना पड़ता है।६० उपन्यासकार इलाचन्द्र जोशी अचेतन मन के भावों को विशेष महत्त्व देते हैं। उनके अधिकांश उपन्यासों में अचेतन मन की व्याख्या की गई। उन्होंने मनुष्य की कामवृत्तियों एवं ग्रन्थियों का उल्लेख भी किया है। वह अचेतन मन की अभिव्यक्ति ही साहित्य एवं कला की उत्कृष्टता मानते हैं। जो सामाजिक के मस्तिष्क को भी स्पर्श करने में समर्थ हो। वह बाह्‌य जगत के संघर्ष से कहीं अधिक आन्तरिक जगत के संघर्ष को महत्त्व देते हुए कहते हैं कि केवल बाह्‌य जीवन की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था और उसके परिणामस्वरूप वर्ग संघर्ष को ही बाहरी और भीतरी जीवन की एक मात्र परिचालिका शक्ति मानना और केवल उसी से सम्बन्ध रखने वाले तत्त्वों की खोज के पथ को प्रगतिशीलता का एक मात्रा पथ बताना घोर भ्रममूलक है। वर्तमान महायुद्ध ने हमे पहले से भी अधिक निश्चित रूप से यह जता दिया है कि बाह्‌य जगत की समस्त सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक प्रवृत्तियों और व्यवस्थाओं का संचालन मूलरूप से सामूहिक मानव की सामूहिक अज्ञात चेतना के भीतर दबे पड़े असंख्य संस्कारों के ही प्रस्फुटन और विस्फ़ोट द्वारा होता है।६१ मन को आध्यात्मिक शक्ति के रूप में स्थान-स्थान पर माना गया है। प्रायः मन के शुद्धिकरण की बात की जाती है। मन वह संस्था है जिसके चैतन्य से विचारधारा संचरित होती है। विलियम जेम्स ने कहा है कि चेतना निरन्तर एक प्रवाह के रूप में होती है। चेतना वैयक्तिक एवं परिवर्तनशील होती है। इसी कारण कोई भी भौतिक अनुभव उसी रूप में दुबारा नहीं हो सकता।६२ चेतना परिवर्तनशील होती है यही कारण है कि मनुष्य के अनुभव व्यवहार आदि में भी भिन्नता पायी जाती है। मन पर पड़ने वाली अनुभव की छाया में भी परिवर्तन आता है। चेतन की तरह सोच विचार और मानवीय व्यवहार भी बदलते हैं। मानव का प्रत्येक कार्य मन की प्रेरणा से परिचालित होता है।साहित्य लेखन भी एक प्रेरणा ही है। इसलिए उनका सम्बन्ध मन से रहना स्वाभाविक ही नहीं तो आवश्यक भी है। अतः उसकी सृजनात्मक क्रिया को समझने के लिए अपने मानसिक ढांचे और उसकी मानसिक क्रिया का अध्ययन आवश्यक है।६३ मानस के क्रियाकलापों का सूक्ष्म अध्ययन करने के पश्चात्‌ - उपन्यासकार मानस-सागर में उठने वाली अनुभूतियों और भावों का यथार्थ प्रतिबिम्ब उपस्थित करने का प्रयास करता है उन्हें तर्क-श्रृंखला में आबद्ध करने की चेष्टा नहीं करता। उपन्यास में लेखन केवल दर्पणवत्‌ है जो निर्वैयक्तिक भाव से नायक अथवा अन्य पात्रों के मानस सागर का प्रतिबिम्ब चित्रित करता है। मानस के स्वरूप को लेकर भ्रान्ति एवं मतभेद होने के बाद भी यह बात स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आती है कि मानस ही मनुष्य में मानवीय संवेदना चिन्तन आदि का संचार कर उसे सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी बनाता है। मनुष्य के समस्त क्रिया-कलापों के मूल में मानस की शक्ति ही अन्तर्निहित है। वही हृदय है बुद्धि है चेतना है और आत्मा भी। मानस ने न केवल मानव को परिष्कृत एवं सुसंस्कृत बनाया। इन गुणों के साथ उसे सर्जनात्मक शक्ति भी दी। विश्व का उच्चस्तरीय साहित्य उसमें व्यक्त होने वाले अत्यन्त व्यवहारिक मनोभाव तथा उत्कृष्ट कोटि की कलायें मानस की ही प्रस्तुति है।सन्दर्भ १ सं० रामचन्द्र वर्मा प्रामाणिक हिन्दी कोश लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद संस्करण २००० पृ० ६६०२ सं० धीरेद्र वर्मा हिन्दी साहित्य कोश भाग-१ ज्ञान मण्डल लिमिटेड वाराणसी पृ० ४९५३ सं० डॉ० नगेन्द्र मानविकी पारिभाषिक कोश दर्शन खण्ड राजकमल प्रकाशन पृ० १५३४-५ डॉ० एम०एस० दुधनीकर प्रसाद साहित्य का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन अलका प्रकाशन किदवई नगर कानपुर पृ० १८ एवं पृ० १९६ सं० रामचन्द्र वर्मा मानक हिन्दी कोश भाग-४ हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग पृ० २८६७ श्रीमती प्रभारानी भाटिया सूर की गोपिका एक मनोवैज्ञानिक विवेचना स्मृति प्रकाशन इलाहाबाद- पृ० ८-९८ डॉ० रामविलास शर्मा आस्था और सौन्दर्य किताब महल इलाहाबाद पृ० ४९ डॉ० मोहनलाल कपूर हिन्दी उपन्यास में चेतना प्रवाह पद्धति साकेत समीर प्रकाशन दिल्ली-३४ पृ० ११० डॉ० विजय कुलश्रेष्ठ जैनेन्द्र के उपन्यासों की विवेचना पूर्वोदय प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली पृ० ७०११-१८ डॉ० भगीरथ मिश्र पाश्चात्य काव्यशास्त्रा विश्वविद्यालय प्रकाशन चौक वाराणसी पृ० ११०-१११ पृ० १११ ११२ ११२ ११३ ११४-११५ ११५ ११६१९ सं० आई०टी० फ्लू दर्शन कोश पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली-५५ १९८८२० हिन्दी साहित्य कोश भाग-१ पृ० ५१२१-२२ डॉ० देवराज उपाध्याय कथा साहित्य के मनोवैज्ञानिक समीक्षा सिद्धान्त सौभाग्य प्रकाशन, इलाहाबाद पृ० ५ ११२३-२४ हिन्दी साहित्य कोश भाग-१ पृ० २५५ २४७२५ डॉ० राजेन्द्र वर्मा साहित्य समीक्षा के पाश्चात्य मानदण्ड मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी भोपाल पृ० ८९२६-२७ सं० डॉ० नामवर सिंह आलोचना जनवरी-मार्च १९७६ पृ० २१ २१२८-२९ सं० डॉ० नामवर सिंह आलोचना जुलाई-सितम्बर १९६९ पृ० ४१ ४२३० सं० नगेन्द्रनाथ बसु हिन्दी विश्वकोश भाग-४ बी०आर० पब्लिशिंग हाउस दिल्ली पृ० २८२३१ सं० इब्राहीम शरीफ विश्वज्ञान संहिता-१ हिन्दी विकास समिति नई दिल्ली पृ० १०८३२-३३ सं० सुधाकर पाण्डेय रामचन्द्र शुक्ल प्रतिनिधि निबंध राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली-२ पृ० ६१ ६४३४ डॉ० मधु जैन यशपाल के उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण अभिलाषा प्रकाशन कानपुर पृ० ३९३५ रामचन्द्र शुक्ल प्रतिनिधि निबंध कविता क्या है पृ० ६५३६-३७ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली भाग-७ राजकमल प्रकाशन दिल्ली पृ० १४६ १३१३८ डॉ० नगेन्द्र रस सिद्धान्त नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली प्रथम संस्करण १९६४ पृ० ११४३९-४० सं० नेमिचन्द्र जैन मुक्तिबोध रचनावली भाग-४ पेपर बैक्स राजकमल प्रकाशन दिल्ली पृ० १२० २०४१-४२ आस्था और सौन्दर्य पृ० २६ ३०-३१४३ प्रसाद साहित्य का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन पृ० १८४४ जैनेन्द्र समय समस्या और सिद्धान्त पूर्वोदय प्रकाशन दिल्ली पृ० ५०४-५४५ वही पृ० ५३८४६ इलाचन्द्र जोशी दैनिक जीवन और मनोविज्ञान इण्डियन प्रेस लि० प्रयाग पृ० ८५४७ डॉ० गोपालराय अज्ञेय और उनके उपन्यास दि मैकमिलन कम्पनी ऑफ इण्डिया लि० दिल्ली पृ० ३५४८-४९ भरत सिंह प्रेमचन्द और प्रसाद की जीवन दृष्टि और कहानी कला लघुशोध प्रबंध अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अलीगढ़ १९७८ पृ० १० २२५० साहित्य समीक्षा के पाश्चात्य मानदण्ड पृ० १६८५१ राष्ट्रीय सहारा दैनिक समाचार पत्र दिल्ली संस्करण रविवार २५ मार्च २००१ पृ० ५५२ यशपाल के उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पृ० ३९५३ डॉ० कमला आत्रय आधुानिक मनोविज्ञान और सूर का काव्य वि०भू० प्रकाशन साहिबाबाद-५ पृ० १३-१४५४ हिन्दी विश्वकोश भाग-९ पृ० २३६५५ हिन्दी साहित्य कोश भाग-१ पृ० ८०५६ मानविकी पारिभाषिक कोश मनोविज्ञान खण्ड पृ० ११९-२०५७ सं० डॉ० विजेन्द्र स्नातक डॉ० परमानन्द श्रीवास्तव एवं डॉ० कमलकिशोर गोयनका जैनेन्द्र और उनके उपन्यास मैकमिलन उपन्यासकार मूल्यांकन माला पृ० ५९५८ सं० डॉ० नगेन्द्र लेखक श्यामसुन्दर दास भारतीय काव्यशास्त्रा की परम्परा नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली पृ० ४१३५९ डॉ० शकुन्तला शर्मा जैनेन्द्र की कहानियाँ एक मूल्यांकन अभिनव प्रकाशन दरियागंज दिल्ली-२ पृ० १७
60 डॉ० बलराज सिंह राणा उपन्यासकार जैनेन्द्र के पात्रों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन संजय प्रकाशन फेज-२ दिल्ली-५२ पृ० ४१६१ इलाचन्द्र जोशी प्रेत और छाया भारती भण्डार इलाहाबाद चतुर्थ संस्करण भूमिका भाग६२-६३ प्रसाद साहित्य का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन पृ० २० ३८

Comments

sanatansanskrit said…
क्या आपकी रुचि भारतीय मनोविज्ञान में है और इस विषय में क्या आप मेरी कोई सहायता कर सकते हैं?

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क