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अनुत्तरित प्रश्न

अजय प्रताप श्रीवास्तव
पिछले कई दिनों से लगातार बारिश हो रही थी। टीन की छत पर गिरती बूँदे जोरदार बरसात का आभास कराती, एक अजीब-सा सुर पैदा कर रही थीं। वो इन सुरों की साधना करते पिछले तीन दिनों से चारपायी पर बीमार पड़ा था।
काश! यह बरसात यूँ ही चलती रहती...। कम से कम एक ठोस बहाना तो बना रहता...अन्यथा किसी को, उससे भी बढ़कर अपने आप को क्या समझायेगा? कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। ... फिर करेगा भी तो क्या-? करने को ऐसा कौन-सा विकल्प है जिस पर उसने विचार न किया हो, प्रयास न किया हो, कोई सच ही कह रहा था, कि जेल में आदमी की सेहत सुधर जाती है, क्योंकि मन में एक सांत्वना रहती है कि वह चाहकर भी यहाँ से किसी के लिए कुछ नहीं कर सकता, रही बात अपने खाने और रहने की, तो उसकी व्यवस्था वहाँ रहती है...।
बाहर नाली का काला-गंदा पानी दालान तक पहुँच चुका है। नाली कहीं पालीथीन से चोक हो गयी थी, लेकिन क्या कहीं हर दस कदम पर नाली पालीथीन से चोक हो जाती है। गली में कीचड़ और गंदगी का साम्राज्य था। उसने चारपायी पर लेटे-लेटे करवट बदली और दालान में घुसे नाली के गंदे पानी को देखा, तो यह सोचकर उसका मन घृणा से भर गया कि, जाने कहाँ-कहाँ की कौन-कौन-सी गंदगी उसके दालान तक आ पहुँची है। नजर घुमाया तो जमीन पर दीवाल से टेक लिए उसकी मरियल हो चुकी बीबी थी। उसे अपनी हालात पर तरस आयी, बत्तीस वर्ष की उम्र में वह अपनी बीबी और बच्चों का पेट नहीं भर सकता... आखिर क्या अर्थ है इस जीवन का ...? सिहरती आवाज में उसने पूछा-बच्चे कहाँ हैं? दुःख और गुस्से की हालत में बीबी ने कहा-यहीं कहीं होगें...!तुमने रोका नहीं... कहीं बीमार पड़ गये तो...?क्या तो-घर में बैठा क्या करूं... अपना कलेजा खिलाऊ... या तुम्हारा... अच्छा होता बीमार पड़ जातें... मर जातें... हमारी जिन्दगी से वह मौत हीं...।
माँ अपने बच्चे के मौत की कामना कैसे कर सकती है और वह सुबक कर रो पड़ी। इसके आँखों में भी आँसू भर आये, जी चाहा कि उठे बीबी के कंधे पर हाथ रखे और कहे- रोओ मत साबिया... सब ठीक हो जायेगा... हम फिर से मेहनत करेंगे... अल्लाह सब ठीक कर देगा... उसने हमारे रोटी की जिम्मेदारी ली हैं... ऊपर वाले के यहाँ देर है पर अन्धेर नहीं । उसके हाथ हवा में उठे जरूर परन्तु उठे रह गये वो, क्या साबिया को ढांढस बधायेगा, साबिया ने तो खुद आगे बढ़कर जाने कितनी बार उसके कंधों को संभाला है। पिछले सात-आठ वर्षों में उसने क्या नहीं किया... प्यार, सहयोग, सर्मपण, बच्चों की परवरिश... फांका कसी... बुरे समय में जेवर तक बेच डाले... लूम पर तो उससे ज्यादा ही वह काम करती थी... कई बार तो वह खुद फफक कर रो पड़ता और वह मर्दों की तरह उसे ढांढस बंधाती... ।
लेकिन वो, ढांढस बंधाये तो किस आधार पर-क्या है उसके पास-केवल सोच और हिम्मत-! वास्तविकता के धरातल पर एक जून की रोटी की व्यवस्था नहीं कर पा रहा है। हौसला और हिम्मत... सब बेकार की बातें हैं, यह सब रुपये वालों का एक सोचा समझा षड़यंत्रा है, जिससे मजदूर अपना खून पसीना लगाकर बिना किसी विरोध के इनकी तिजोरियां भरता रहे।
उसे अकुलाहट होने लगी, टिन पर पड़ रही पानी की बूँदे उसकी बेचैनी को और बढ़ा रही थी। वह इन सबसे बाहर निकल जाना चाहता था। उसने सोचा-घर तो रास्ते का अंत है, उसे अभी बहुत दूर जाना है, इसलिए बाहर निकलना ही पडेगा, चौराहे पर पहुँच कर मंजिल की ओर जाने वाले रास्ते की तलाश करनी ही होगी, लेकिन यदि उसने कोई ग़लत रास्ता पकड़ लिया और रास्ते में ही खो गया... परन्तु इसकी पहचान रास्ते पर चले बिना हो नहीं सकती, सब कुछ अंकगणित की तरह दो और दो चार नहीं होते हैं। लोग कहते हैं-यही अनिश्चितता दुनिया की खूबसूरती है। लोग तो यह भी कहते हैं कि बड़े लोगों ने अपना रास्ता खुद ही बनाया है, हो सकता है बनाया हो, खाये-पिये तन्दरुस्त लोग रहें होगें, उनके बाजुओं में ताकत रही होगी, उनके पास कुदाल और फावड़ा रहा होगा, लेकिन मैं अपनी इस बीमार कमजोर देह से, खाक नाखूनों से खोदकर रास्ता बनाऊंगा। सब बातें हैं... लफ्फाजी है।और वो, हिलते-डुलते अंदर तक धंस चुकी चारपायी से उठा और बाहर निकल गया।
बरसात बंद चुकी थी। गली की कीचड़ में सुअर लोट रहे थे पैर कीचड़ में डाले बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता था। परन्तु इन बातों का उसके लिए कोई अर्थ नहीं था। अर्थ होता तो अवश्य सोचता कि जब कस्बे की गलियों में आर० सी० सी० बिछाई जा रही है, तो इसी कस्बे में इन जैसे लोगों के रहने वाले मुहल्ले में कीचड़ और गंदगी क्यों है, एक सदस्य तो उसने भी चुना है, चेयरमैन के चुनाव में उसने भी वोट दिया है। हाँ, वह यह अवश्य सोच रहा है कि सदैव लूम के खटर-पटर से गूंजने वाला यह मुहल्ला कब्र में लेटे किसी मुर्दे की तरह शांत है, गोश्त पकाये जाने जैसी खुशबू शायद ही कभी-कभी कहीं-कहीं से आ रही है, जुठन के हड्डी और गोश्त की तलाश में घूमने वाले आवारा कुत्तों ने मुहल्ला छोड़ दिया है। गलियों के भीतर और सड़क पर जगह-जगह केबल कनेक्शनों से जुड़ी रंगीन टी० वी० वाली चाय और पान की खचाखच भरी दुकानों पर इक्के-दुक्के लोग ही मिलते हैं। अब रंगीन टी० वी० नहीं चलती, अब किसी को समाचार और मनोरंजन की आवश्यकता नहीं है, ईराक में क्या हो रहा है, या प्रधानमंत्री ने कहा कोई उत्सुकता नहीं है। यदि लोग कुछ जानना चाहते है तो सिर्फ यह कि-पिछले डेढ़ महीने से जले ट्रांसफार्मर का क्या हाल है... जे० ई० ने ट्रांसफार्मर जलने की रिर्पोट लगाई कि नहीं... रास्ते में ट्रांसफार्मर लदी गाड़ी बरसात में फँसने के बाद निकली या नहीं... विधायक जी ने क्या कहा... चंदा कितना इकठ्ठा हुआ...? बिजली कभी आयेगी भी या नहीं... लोगों का जीवन एक ट्रांसफार्मर के इर्द-गिर्द आकर ठहर गया है! वो, गली में आगे बढ़ रहा था, अचानक लड़खड़ाया लेकिन बिजली के खम्भे को पकड़ कर संभल गया, शयद कोई गढ्ढा था। सिर ऊपर उठाकर खम्भे से जाती बिजली के तारों को देखने लगा, जाने क्या सोचकर मुस्कुराया फिर अगली गली में मुड़ गया क्योंकि सामने जलभराव था और उधर से जाना संभव नहीं था। अब वह सड़क पर आ चुका था। अभी रात तो नहीं हुई थी लेकिन बादल के कारण दुकानदारों ने बल्ब जला दिये थे। लगातार खराब विद्युत व्यवस्था के कारण सारे बाजारों में जनरेटर दुकानदारी के समय तयशुदा रेट पर बिजली की व्यवस्था रहती है एक दम प्राइवेट। अक्सर दुकानों पर ढ़ेर सारे तिरंगें, झंड़े, टोपियां, बिल्ले लगे हुए थे। कल पन्द्रह अगस्त है स्वतंत्राता दिवस, उसने सोचा चलो अभी कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता अन्यथा रुपये-दो-रुपये का टंटा रखा ही था। उसके तीन बच्चे हैं बड़ा छः वर्ष का बाकी दोनों दो-दो वर्षों के अन्तर पर दो लड़के हैं एक लड़की अब वह और बच्चे नहीं चाहता, सोच रहा था कि हालात ठीक हों तो साबिया की नसबंदी करा दूँ। तैयार तो वह भी है, लेकिन यह भी इतना आसान कहाँ? निरोध लाने के पैसे नहीं है और सरकार जाने कहाँ फ्री बाँटती है। नसबंदी तो दूर की कौड़ी है। वह खुद पिछले तीन महीने से बीमार है। दस्त आता है, ईसब्बगोल की भूसी से लेकर गुलमोहर की पत्ती तक सब खाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ कभी रुक-रुक कर तो कभी लगातार दस्त जारी है। सामने हकीम साहब की दुकान है, इनकी दवा से कुछ लाभ तो जरूर हुआ था परन्तु वो दवा कर ही कहाँ पाया। सोचा कि हकीम साहब के पास चलूँ लेकिन मरीजों की भीड़ देखकर आगे बढ़ गया, अब तो वो कहीं एकान्त की तलाश में था और एकान्त ढूढ़ता यहाँ नदी के किनारे आ गया था। अगस्त के महीने में घाघरा अपने पूरे उफान पर होती है। सामान्यतः गर्मियों में दूर-दूर तक रेत पर पाये जाने वाली चहल-पहल इस समय बिल्कुल गायब थी। बाढ़ के इस मौसम में शाम ढ़लते ही, यहाँ स्थित मंदिर का पुजारी भी संध्या कर कपाट बंद करके अपने घर चला जाता है घाघरा का अथाह पानी मंदिर की सीढ़ियों तक आ गया था। वो, यहीं पास में छप्पर के नीचे पड़ी खाली बेंच पर बैठ गया अथाह अगम जल राशि को निहारने लगा, इतना असीम जल और इतना शांत लेकिन नहीं... उसका मन जल की गहराइयों में उतरने लगा, फिर वही प्रश्न आकर सामने खड़ा हो गया... क्या करूं.... अपना कलेजा खिलाऊं कि तुम्हारा...! वह सोचने लगा कि उससे क्या गलती हुई है-? कहाँ गलती हुई है- कुछ न कुछ तो करना पडेगा, कोई-न-कोई हल निकालना ही पडेगा, अब वो और नहीं टाल सकता। परन्तु ऐसा तो नहीं है कि आज पहली बार वह इस बात पर गम्भीर हुआ है। रोज ही तो अन्तिम फैसले की बात सोचता है, लेकिन वहाँ किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका है। फिर भी, आज इसी समय एक बार और उसे अपनी सारी स्थिति-परिस्थिति पर विचार कर अन्तिम निर्णय तक पहुँचना ही होगा अन्यथा एक शानदार शान्त मौत के लिए सामने नदी बह रही है। बस, एक कदम उतरने भर की देर है।
वो, यानी असलम अंसारी पावर लूम पर बुनकर मजदूर है। अब्बा बताते है कि पहले हथकरघे पर गमछा और लुंगी बुनते थे शाम को बनियों के यहाँ बेच कर आटा-दाल खरीदते थे यह दौर केवल मौसमी तेजी और मंदी का था। देखते-देखते पावर लूम आया स्टीपल के धागे आये और फिर टेरीकाट धागा। लूम पर टेरीकाट धागा बुना जाने लगा। यह क्रांतिकारी परिवर्तन का दौर था। सरकार समाजवादी गणतंत्र छोड़कर पूँजीवादी गणतंत्र की अवधारण स्वीकार कर चुकी थी। देखते-देखते यहाँ के टेरीकाट ने देश की कपड़ा मंड़ियों पर कब्जा कर लिया। सबकी हालत सुधरने लगी। अब्बा ने भी दस लूम का अपना कारोबार खड़ा कर दिया। खुद बुनाई करते, अपना कपड़ा मंडी में बेचते। धीरे-धीरे पूँजी का न जाने कौन-सा खेल शुरू हो गया कि यह पूरा व्यवसाय चन्द पूँजी-पतियों के हाथों में सिमटने लगा। प्रतियोगिता बढ़ गयी, सरकारी भ्रष्टाचार के फलस्वरूप बिजली चोरी तैयार माल का मुनाफा बन गयी। इसी बीच शुरू हो गया भयंकर बिजली संकट! चौबीस घंटे में चार और छः घंटे बिजली, और यह संकट आज भी बदस्तूर जारी है, केवल राजनैतिक दलों को सत्ता में आने-जाने और इस क्षेत्र से जीते एम० पी०, एम०एल०ए० के समीकरणों पर कभी दो-चार घंटे और बढ़ जाते है या फिर घट जाते है। यह वह दौर था जब मेरे अब्बा जैसे लोगों को अपना लूम बेचकर मजदूर हो जाना पड़ा। कुछ और बड़े पच्चीस से पच्चास लूम रखने वाले बानी अर्थात्‌ बिजली, मशीन, मजदूर का, धागा और तैयार कपड़ा सेठ जी का, मजदूर आठ आने, बारह आने प्रतिमीटर बुनाई का हकदार रह गया। कस्बे में रुपयों की बाढ़ आ गयी। विडम्बना यह कि आम आदमी लूम बेचने लगा, बम्बई, सूरत, भिमण्डी भागने लगा। भूखों मरने पर मजबूर हो गया। ऐसा नहीं था कि मजदूरों में चेतना नहीं थी। बुनकर मजदूर आंदोलन खड़ा हुआ लेकिन अब सेठों की तिजोरियों में इतना रुपया था कि वे ऐसे आंदोलनों को जब चाहें देख लें और फिर देख भी लिया। बिजली संकट और बानी मजदूरी पर पचास-साठ हजार बुनकरों द्वारा चलाया जाने वाला आंदोलन बीसवें दिन ऐसे समाप्त हुआ कि सोचकर हँसी आती है। बिना आश्वासन, बिना बल प्रयोग, नेताओं ने आंदोलन वापस ले लिया था। हाँ, एक प्रतिनिधि मण्डल ऊर्जा मंत्री से मिलने गया था, बस। असलम को अब्बा ने कस्बे के डिग्री कालेज से बी० ए० कराया था। लेकिन उसे कभी नहीं लगा कि वह पढ़ा-लिखा है, क्योंकि परिवार एक ऐसे दुष्चक्र में फँसा था कि जहाँ बिना मजदूरी के एक जून रोटी का ठिकाना नहीं था। लेकिन पढ़ाई का एक बड़ा फायदा यह हुआ कि उसके अन्दर गैर जरूरी स्वाभिमान जाग उठा, आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता जैसे शब्द समझने लगा और सबसे बड़ी बात कि भाग्य का भरोसा छोड़ दिया। इसी बीच अब्बा ने उसकी शादी कर दी जैसा वह था, वैसे ही रिश्तेदार मिले....! बुनकर मजदूर...! हाँ, आम हिन्दुस्तानी की तरह अब्बा ने भी इस शादी में अपनी शेष पूँजी और नकद कर्ज लगा दिया, कसर तो फिर भी रह गयी थी। इसके बाद उल्लेखनीय घटनाओं के नाम पर वह बाप बनता गया। हालात बिगड़ते गये, अब्बा ने घर से थोड़ी दूर वाली इस छप्पर में उसे अलग कर दिया। पिछले तीन सालों से लगातार वह कोई नया धन्धा करने की सोच रहा है मगर हर जगह एक समस्या थी पूँजी । सरकारी ऋण प्राप्त करने के लिए भी पूँजी लगानी पड़ती है। जहा दो जून की रोटी की व्यवस्था करनी हो वहाँ नया काम सीखना, करना, जिसमें साल-छः महीने कम से कम लगने ही हैं सिर्फ एक सोच रह सकती है। वह भी तो सिर्फ सोचता था कितनों को काम मिलता है ? लोग मजदूर ऐसे छांटते हैं, कि शायद रंडी खाने में रंडियां नहीं छांटी जाती होंगी। फिर, घर का सारा सामान पंखा, चौकी, ड्रम, बरतन... सब बिक गया, बच्चों को जिंदा रखें है। साबिया और वह खुद जानें कैसे जिंदा हैं। सेठ तीन सौ रुपये एडवांस दे चुका है, और देने का प्रश्न ही नहीं उठता, पड़ोसी रिश्तेदार देने की हैसियत में नहीं हैं। इतना स्वाभिमान उसमें अब भी शेष है कि और लोगों की तरह अपनी पत्नी, बच्चों को दूसरी जगह भीख मांगने के लिए नहीं भेजा और यह कहना ही बेकार है कि दूसरी जगह ड्यूटी क्यों नहीं कर लेता क्योंकि इस हाल में कहीं... और... ड्यूटी खाली होने का प्रश्न ही नहीं उठता। परन्तु अब आगे वह क्या करे-पेट में दर्द बढ़ रहा है, विचारों की श्रृखंला टूट गयी। लगा कि अभी गिर पडेगा... अब वह मुक्त होना चाहता था... पूर्ण मुक्त... सामने नदी निर्लिप्त भाव से बह रही थी... लेकिन साबिया ... और बच्चे... उनका क्या होगा। वह खड़ा हुआ। एक बार फिर बिना फैसला लिए घर लौट आया। रास्ते में हकीम साहब की दुकान के सामने ठिठका लेकिन फिर याद आया, अभी चार दिन पहले ही तो हकीम साहब के यहाँ दवा लेने आया था और उसने कहा था कि मुझे दवा चाहिए लेकिन मैं पैसे नहीं दूँगा क्योंकि मेरे पास खाने के लिए भी पैसे नहीं है। हकीम साहब ने दवा नहीं दी लेकिन उनकी पत्नी ने चार रुपये और कुछ आटा दिया था। आज फिर जाना भिखमंगी होगी। वो, आगे बढ़ गया। पास में कहीं धार्मिक सम्मेलन हो रहा था। मौलाना साहब फरमा रहे थे-... खाने से पहले यह देख लो कि पड़ोसी कहीं भूखा तो नहीं सो रहा है।... पड़ोसी यानी अपने घर से चालीस घर अगल बगल... जाति, धर्म, रंग, भेष आदि के बिना रहने वाले लोग... यदि पड़ोसी भूखा सो रहा है तो खाना हराम है... तुम सच्चे मुसलमान नहीं हो...। वो, अकेले ही एक मरी हुई हँसी हँसा और बुदबुदाया... हरामी...। अब वह अपने घर पहुँच चुका था। रात काफी हो चुकी थी। आसमान से बादल छट चुके थे। चांदनी फैल रही थी। घर मे अंधेरा था। बीबी वैसे ही दीवाल से टेक लगाये बैठी थी। अपनी चारपाइयों में धंस गया और बीबी से पूछा-बच्चे सो गये क्या। हाँ, सो गये, लेकिन तुम कहाँ थे। नदी के किनारे मरने ... कुछ फैसला करने क्या फैसला किया। कुछ नहीं आखिर तुम कुछ करते क्यों नहीं- साबिया ने चिल्लाकर कहा। ...उसने कोई उत्तर नहीं दिया। चार रुपये का आटा चार दिन नहीं चलता। फांकाकशी करते आज पूरे पांच दिन हो गये, बच्चों को भी झूठ बोलकर भूखे ही सुला दिया है, अगर अभी जाग गये तो क्या करेंगे। अरे-! कुछ बोलते क्यों नहीं ... यूं ही हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे या कुछ करोगे भी ... तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं-! कुछ भी करो चोरी करो ... डकैती डालो ... भीख मांगो ...मगर कुछ करो ...अगर कुछ न कर सको तो एक डिबिया सल्फास ही लेते आओ सब खाकर ...। वो गुस्से और बेबसी से बड़बड़ाते हुए बाहर निकल आया। सा ऽ ऽ ऽ... सल्फास लाने को कह रही है ...अगर इतने पैसे मेरे पास होते तो आज मैं सल्फास लेकर ही आता। एक बार फिर वो, घर से बाहर निकल आया। परन्तु यह प्रश्न तो अब भी शेष था कि आगे वह क्या करे - अब उसका सिर गोल-गोल घूम रहा था ...।

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